________________
को प्रतिबोध
भगवान् महावीर
५८१
वह चण्डकौशिक सर्प अपने पूर्वभव में एक तपस्वी था। एक बार तप के पारण के दिन वह तपस्वी अपने एक शिष्य के साथ भिक्षार्थ निकला । भिक्षार्थ भ्रमण करते समय अज्ञात दशा में उन तपस्वी मुनि के पैर के नीचे एक मण्डकी दब गई। यह देख कर शिष्य ने कहा- "गुरुदेव ! आपके पैर से दब कर मेंढकी मर गई।"
उन तपस्वी मुनि ने मार्ग में दबी हई एक दसरी मेंढकी की ओर अपने शिष्य का ध्यान आकर्षित करते हुए कहा-"क्या इस मेंढकी को भी मैंने मारा है ?"
शिष्य ने सोचा कि सायंकाल के प्रतिक्रमण के समय गुरुदेव इस पाप की आलोचना कर लेंगे।
सायंकाल के प्रतिक्रमण के समय भी तपस्वी मनि अन्य आवश्यक पालोचनाएं कर के बैठ गये और उस मेंढकी के अपने पैर के नीचे दब जाने के पाप की पालोचना उन्होंने नहीं की। शिष्य ने यह सोच कर कि गुरुदेव उस पाप की आलोचना करना भूल गये हैं, अपने गुरु को स्मरण दिलाते हुए कहा--"गुरुदेव! मण्डुकी आपके पैर के नीचे दब कर मर गई, उसकी आलोचना कीजिए।" एक बार में नहीं सुना तो उसने दूसरी व तीसरी बार कहा-"महाराज? मेंढ़की की आलोचना कीजिए।"
___ इस पर वे तपस्वी मुनि क्रुद्ध हो अपने शिष्य को मारने के लिए उठे। क्रोधावेश में ध्यान न रहने के कारण एक स्तम्भ से उनका शिर टकरा गया। इसके परिणामस्वरूप तत्काल उनके प्राण निकल गये और वे ज्योतिष्क जाति में देव रूप में उत्पन्न हए। वहाँ से आयष्य पूर्ण कर उस तपस्वी का जीव कनकखल आश्रम के ५०० तापसों के कुलपति की पत्नी की कुक्षि से बालक के रूप में उत्पन्न हुआ । बालक का नाम कौशिक रखा गया । कौशिक बाल्यकाल से ही बहुत चण्ड प्रकृति का था। उस प्राश्रम में कौशिक नाम के अन्य भी तापस थे इसलिए उसका नाम चण्डकौशिक रखा गया ।
समय पाकर चण्डकौशिक उस पाश्रम का कुलपति बन गया। उसकी अपने आश्रम के वन के प्रति प्रगाढ़ ममता थी। वह तापसों को उस वन से फल नहीं लेने देता था, अत: तापस उस आश्रम को छोड़ कर इधर-उधर चले गये।
उस आश्रम के वन में जो भी गोपालक प्राते उनको वह चण्डकौशिक मार-पीट कर भगा देता। एक बार पास की नगरी 'सेयविया' के राजपुत्रों ने वहां आकर वनप्रदेश को पाकर नष्ट कर दिया। गोपालकों ने चण्डकौशिक के बाहर से लौटने पर उसे सारी घटना सुना दी। चन्द्रकौशिक लकड़ियां डाल कर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org