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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[चण्डकौशिक
भगदान अच्छंदक के अन्तर के नर्म को जान कर अपनी प्रतिज्ञा के मनसार वहाँ से विहार कर उत्तर वाचाला की ओर पधार गये ।'
सुवर्णकला और रूप्यकला नदी के कारण 'वाचाला' के उत्तर और दक्षिण दो भाग हो गये थे। सुवर्णकला के किनारे प्रभु के स्कन्ध का देवदूष्य वस्त्र काँटो में उलझ कर गिर पड़ा। प्रभु ने थोड़ा सा मुड़ कर देखा कि वह वस्त्र कही प्रस्थान में तो नहीं गिर पड़ा है। काँटों में उलझ कर गिरे वस्त्र को देख कर प्रभु ने समझ लिया कि शिष्यों को वस्त्र सुगमता से प्राप्त होंगे। तदनन्तर प्रभ ने उस देवदृष्य को वहीं वोसिरा दिया और स्वयं अचेल हो गये । तत्पश्चात् प्रभु जीवन भर अचेल रहे।
देवदृष्य वस्त्र प्राप्त करने की लालसा से प्रभ के पीछे-पीछे घमते रहने वाले महाराज सिद्धार्थ के परिचित ब्राहारण ने उस वस्त्र को उठा लिया और वह अपने घर लौट आया।
चण्डकौशिक को प्रतिबोध मोराक सन्निवेश से विहार कर प्रभु उत्तर वाचाला की ओर बढ़ते हुए कनखमल नामक आश्रम पर पहुंचे । उस आश्रम से उत्तर वाचाला पहुंचने के दो मार्ग थे। एक मार्ग आश्रम के बीच से होकर और दूसरा बाहर से जाता था। भगवान् सीधे मार्ग पर चल पड़े। मार्ग में उन्हें कुछ ग्वाले मिले और उन्होंने प्रभु से निवेदन किया-“भगवन् ! जिस मार्ग पर आप बढ़ रहे हैं, उसमें प्राणपहारी संकट का भय है। इस पथ पर आगे की ओर वन में चण्डकौशिक नामक दृष्टिविष वाला भयंकर सर्प रहता है, जो पथिकों को देखते ही अपने विष से भस्मसात कर डालता है। उसकी विषैलो फत्कारों से आकाश के पक्षी भी भूमि पर गिर पड़ते हैं। वह इतना भयंकर है कि किसी को देखते ही जहर बरसाने लगता है। उस चण्डकौशिक के उग्र विष के कारण आसपास के वृक्ष भी सूख कर ठंठ बन चुके हैं। अतः अच्छा होगा कि आप कृपा कर इस मार्ग को छोड़ कर दूसरे बाहर वाले मार्ग से आगे की अोर पधारें।"
भगवान् महावीर ने उन ग्वालों की बात पर न कोई ध्यान ही दिया और न कुछ उत्तर ही। कारण करुणाकर प्रभ ने सोचा कि चण्डकौशिक सर्प व्य प्राणी है, अत: वह प्रतिबोध देने से अवश्यमेव प्रतिबद्ध होगा। चण्डकौशिक का उद्धार करने के लिए प्रभु उस छोर संकटपूर्ण पथ पर बढ़ चले।
१ अावश्यक चूरिण, पृष्ठ २७७ १ तस्थ सुवण्णकूलाए वुलिणे तं वत्थं कंटियाए लग्गं, ताहे तं थितं तं एतेण पितुततंस. धिज्जातितेरण गहितं ।
[प्रावश्यक चूणि, पत्र २७७]
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