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________________ स्वप्न फल कथन ] भगवान् महावीर ५७६ प्राप्त नहीं हुआ । उन्होंने शान्तिपूर्वक पन्द्रह - पन्द्रह दिन के उपवास आठ बार किये । इस प्रकार यह प्रथम वर्षावास शान्तिपूर्वक सम्पन्न हुआ ।" साधना का दूसरा वर्ष अस्थिग्राम का वर्षाकाल समाप्त कर मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा को भगवान् ने मोराक सन्निवेश की ओर विहार किया । मोराक पधार कर श्राप एक उद्यान में विराजे । वहाँ अच्छंदक नाम का एक अन्यतीर्थी पाखंडी रहता था, जो ज्योतिष से अपनी जीविका चलाता था । सिद्धार्थ देव ने प्रभु की महिमा बढ़ाने के लिए मोराक ग्राम के अधिकारी से कहा - "यह देवार्य तीन ज्ञान के धारक होने के कारण भूत, भविष्यत् और वर्तमान की सब बातें जानते हैं ।" सिद्धार्थ देव की यह बात सब जगह फैल गई और लोग बड़ी संख्या में उस उद्यान में आने लगे, जहां पर कि प्रभु ध्यान में तल्लीन थे । सिद्धार्थ श्राये हुए लोगों को उनके भूत-भविष्यत् काल की बातें बताता । उससे लोग बड़े प्रभावित हुए और इसके परिणामस्वरूप सिद्धार्थ देव सदा लोगों से घिरा रहता । उन लोगों में से किसी ने सिद्धार्थ देव से कहा - "यहाँ प्रच्छंदक नामक एक प्रच्छा ज्योतिषी रहता है ।" इस पर सिद्धार्थ देव ने उत्तर दिया- "वह कुछ भी नहीं जानता । वास्तव में देवार्य ही भूत, भविष्यत् और वर्तमान के सच्चे जानकार हैं ।" सिद्धार्थ व्यन्तरदेव ने अच्छंदक द्वारा किये गये अनेक गुप्त पापों को प्रकट कर दिया। लोगों द्वारा छानबीन करने पर सिद्धार्थ देव द्वारा कही गई सब बातें सच्ची सिद्ध हुईं। इस प्रकार अच्छंदक की 'सारी' पोपलीला की कलई खुल गई और लोगों पर जमा हुआ उसका प्रभाव समाप्त हो गया । भगवान् महावीर के उज्ज्वल तप से प्रभावित जन-समुदाय दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक संख्या में प्रभु की सेवा में आने लगा । अच्छंदक इससे बड़ा उद्विग्न हुआ । अन्य कोई उपाय न देख कर वह भगवान् महावीर के पास पहुंचा और करुण स्वर में प्रार्थना करने लगा"भगवन् ! आप तो सर्वशक्तिमान् और निःस्पृह हैं । आपके यहां विराजने से मेरी आजीविका समाप्तप्राय हो रही है । प्राप तो महान् परोपकारी हैं, फिर मेरा वृत्तिछेद, जो कि वधतुल्य ही माना गया है-वह आप कभी नहीं कर सकते । अतः श्राप मुझ पर दया कर अन्यत्र पधार जायँ ।” १ भाव० चू० पृ० २७४ - २७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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