SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 647
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिबोध] भगवान् महावीर ऐसी दशा में त्रैलोक्यैकमित्र जिन प्रभ के रोम-रोम में प्राणिमात्र के प्रति पूर्ण वात्सल्य हो, उनके शरीर का रुधिर दूध सा श्वेत और मधुर हो जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? इसके उपरान्त तीर्थंकर प्रभु के शरीर का यह एक विशिष्ट अतिशय होता है कि उनका रक्त और मांस गौदुग्ध के समान श्वेत वर्ण का ही होता है। चण्डकौशिक चकित हो भगवान् महावीर की सौम्य, शान्त और मोहक मुखमुद्रा को अपलक दृष्टि से देखने लगा । उस समय उसने अनुभव किया कि भगवान महावीर के रोम-रोम से अलौकिक विश्वप्रेम और शान्ति का प्रमतरस बरस रहा है । चण्डकौशिक के विषमय दंष्ट्राघात से वे न तो उद्विग्न हुए और न उसके प्रति किसी प्रकार का रोष ही प्रकट किया। चण्डकौशिक का क्रोधानल मेघ की जलधारा से बुझे दावानल की तरह शान्त हो गया। चण्डकौशिक को शान्त देख कर महावीर ध्यान से निवृत्त हुए और बोले"उवसम भो चण्डकोसिया ! हे चण्डकौशिक ! शान्त हो, जागृत हो, प्रज्ञान में कहाँ भटक रहा है ? पूर्व-जन्म के दुष्कर्मों के कारण तुम्हें सर्प बनना पड़ा है। अब भी संभलो तो भविष्य नहीं बिगड़ेगा, अन्यथा इससे भी निम्न भव में भ्रमरण करना पड़ेगा।" भगवान के इन सुधासिक्त वचनों को सुन कर 'चण्डकौशिक' जागत हमा, उसके अन्तर्मन में विवेक की ज्योति जल उठी। पूर्वजन्म की सारी घटनाएं चलचित्र की भांति एक-एक कर उसके नेत्रों के सामने नाचने लगीं। वह अपने कृतकर्म के लिए पश्चात्ताप करने लगा । भगवान् की प्रचण्ड तपस्या और निश्छल, विमल करुणा के आगे उसका पाषाणहृदय भी पिघल कर पानी बन गया। उसने शुद्ध मन से संकल्प किया-"अब मैं किसी को भी नहीं सताऊंगा और न प्राज से मरणपर्यन्त कभी अशन ही ग्रहण करूंगा।" कुछ लोग भगवान् पर चण्डकौशिक की लीला देखने के लिए इधर-उधर दूर खड़े थे, किन्तु भगवान् पर सर्प का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा देख कर घे धीरे-धीरे पास आये और प्रभु के अलौकिक प्रभाव को देख कर चकित हो गये। चण्डकौशिक सर्प को प्रतिबोध दे प्रभु अन्यत्र विहार कर गये। सर्प बिल में मह डाल कर पड़ गया। लोगों ने कंकर मार-मार कर उसको उत्तेजित करने का प्रयास किया पर नाग बिना हिले-डुले ज्यों का त्यों पड़ा रहा। उसका प्रचण्ड क्रोध क्षमा के रूप में बदल चुका था । नाग के इस बदले हुए जीवन को देख व सुन कर पाबाल वृद्ध नर-नारी उसकी अर्चा-पूजा करने लगे। कोई उसे दूध शक्कर चढ़ाता तो कोई कुकुम का टीका लगाता । इस तरह मिठास के कारण १ न ही चिंता-सरणं जोइस कोवाहि जामोऽहं । [प्राव. नि., गा. ४६७] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy