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________________ ५८४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [विहार और नौकारोहण थोड़े ही समय में बहुत सी चींटियां प्रा-मा कर नाग के शरीर से चिपट गई और काटने लगीं, पर नाग उस असह्य पीड़ा को भी समभाव से सहन करता रहा। इस प्रकार शुभ भावों में प्रायु पूर्ण कर उसने अष्टम स्वर्ग की प्राप्ति की।' भगवान् के उद्बोधन से चण्डकौशिक ने अपने जीवन को सफल बनाया। उसका उद्धार हो गया। विहार और नौकारोहण चण्डकौशिक का उद्धार कर भगवान् विहार करते हुए उत्तर वाचाला पधारे । वहाँ उनका नागसेन के यहाँ पन्द्रह दिन के उपवास का परमान्न से पारणा हा । फिर वहाँ से विहार कर प्रभु श्वेताम्बिका नगरी पधारे । वहाँ के राजा प्रदेशी ने भगवान् का खभावभीना सत्कार किया। श्वेताम्बिका से विहार कर भगवान् सुरभिपुर की ओर चले । बीच में गंगा नदी बह रही थी। अतः गंगा पार करने के लिए प्रभु को नौका में बैठना पड़ा। नौका ने ज्यों ही प्रयारण किया त्यों ही दाहिनी ओर से उल्ल के शब्द सुनाई दिये। उनको सुन कर नौका पर सवार खेमिल निमित्तज्ञ ने कहा-"बड़ा संकट पाने वाला है, पर इस महापुरुष के प्रबल पुण्य से हम सब बच जायेंगे।"२ थोड़ी दूर आगे बढ़ते ही अाँधी के प्रबल झोंकों में पड़ कर नौका भँवर में पड़ गई। कहा जाता है कि त्रिपुष्ट के भव में महावीर ने जिस सिंह को मारा था उसी के जीव ने वैर-भाव के कारण सुदंष्ट्र देव के रूप से गंगा में महावीर के नौकारोहण के पश्चात् तूफान खड़ा किया। यात्रीगण घबराये, पर महावीर निर्भय-अडोल थे। अन्त में प्रभु की कृपा से आँधी रुकी और नाव गंगा के किनारे लगी। कम्बल और शम्बल नाम के नागकुमारों ने इस उपसर्ग के निवारण में प्रभु की सेवा की। पुष्य निमित्तज्ञ का समाधान नाव से उतर कर भगवान् गंगा के किनारे 'स्थूणाक' सन्निवेश पधारे पौर वहां ध्यान-मुद्रा में खड़े हो गये । गाँव के पुष्य नामक निमित्तज्ञ को भगवान् के चरण-चिह्न देख कर विचार हुमा-"इन चिह्नों वाला अवश्य ही कोई चक्रवर्ती या सम्राट होना चाहिये । संभव है, संकट में होने से वह अकेला घम रहा हो । मैं जाकर उसकी सेवा करू।" इन्हीं विचारों से वह चरण-चिह्नों को देखता हुमा बड़ी माशा से भगवान् के पास पहुंचा। किन्तु भिक्षकरूप में भगवान को खड़े देख कर उसके भाश्चर्य का पारावार नहीं रहा । वह समझ नहीं पाया १ प्रबमासस्स कालगतो सहस्सारे उववन्नो । [भा. चू. १, पृ. २७६] २ मा०पू० पूर्वभाग. पृ० २८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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