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गोशालक का प्रभु-सेवा में प्रागमन] भगवान् महावीर
कि चक्रवर्ती के समस्त लक्षण शरीर पर होते हए भी यह भिक्षक कैसे है। उसकी ज्योतिष-शास्त्र से श्रद्धा हिल गई और वह शास्त्र को गंगा में बहाने को तैयार हो गया। उस समय देवेन्द्र ने प्रकट होकर कहा-'पंडित ! शास्त्र को अश्रद्धा की दृष्टि से न देखो। यह कोई साधारण पुरुष नहीं, धर्म-चक्रवर्ती हैं, देव-देवेन्द्र और नरेन्द्रों के वन्दनीय हैं ।' पुष्य की शंका दूर हुई और वह वन्दन कर चला गया।
गोशालक का प्रभु-सेवा में प्रागमन विहार-क्रम से घूमते हुए भगवान् ने दूसरा वर्षावास राजगह के उपनगर नालन्दा में किया । वहाँ प्रभु एक तन्तुवाय-शाला में ठहरे हुए थे । मंखलिपुत्र गौशालक भी उस समय वहाँ वर्षावास हेतु आया हुआ था । भगवान् के कठोर तप और त्याग को देख कर वह माकर्षित हुमा । भगवान् के प्रथम मासतप का पारणा विजय सेठ के यहाँ हुआ। उस समय पंच-दिव्य प्रकट हुए और प्राकाश में देव-दुन्दुभि बजी । भाव-विशुद्धि से विजय ने संसार परिमित किया और देवप्राय का बन्ध किया। राजगह में सर्वत्र विजय गाथापति की प्रशंसा हो रही थी। गोशालक ने तप की यह महिमा देखी तो वह भगवान् के पास पाया। भगवान् ने वर्षाकाल भर के लिए मास-मास का दीर्घ तप स्वीकार कर रखा था । दूसरे मास का पारणा प्रानन्द गाथापति ने करवाया। उसके बाद तीसरा मास खमरण किया और उसका पारणा सुनन्द गाथापति के यहाँ क्षीर से सम्पन्न हुआ।
कार्तिकी पूर्णिमा के दिन भिक्षा के लिये जाते हुए गोशालक ने भगवान् से पूछा- “हे तपस्वी ! मुझे प्राज भिक्षा में क्या मिलेगा?" सिद्धार्थ ने कहा"कोदों का बासी भात, खट्टी छाछ और खोटा रुपया।"
भगवान की भविष्यवाणी को मिथ्या सिद्ध करने हेतु गोशालक ने श्रेष्ठियों के उच्च कुलों में भिक्षार्थ प्रवेश किया, पर संयोग नहीं मिलने से उसे निराश होकर खाली हाथ लौटना पड़ा । अन्त में एक लुहार के यहाँ उसको खट्टी छाछ, १ प्रा० चू० १, पृ० २८२ । २ विजयस्स गाहावइस्स तेणं दव्वसुद्धणं दायगंसुद्धणं, तिविहेणं तिकरण सुद्धणं दाणेणं मए पड़िलाभिए समारणे, देवाउए निबद्ध, संसारे परित्तीकए गिहंसि य से, इमाई पंचदिव्वाइं पाउन्भूयाई।
[भगवती, १५ श०, सू० ५४१, पृ० १२१४] ३ तच्च मासक्खमण पारणगंसि तंतुवाय सालापौ.......
[भगवती, शतक १५, उ० १, सूत्र ५४१] ४ सिद्धार्थ: स्वामिसंक्रान्तो, बभाषे भद्र लप्स्यसे । धान्याम्लं कोद्रवरमेकं कूटं च रूप्यकम् ।
[त्रि० श० पु. १०, १०।३।३६३ श्लो॰]
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