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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ गोशालक का सेवा में प्रागमन
बासी भात और दक्षिणा में एक रुपया प्राप्त हुआ जो बाजार में नकली सिद्ध हुआ । गोशालक के मन पर इस घटना का यह प्रभाव पड़ा कि वह नियतिवाद का भक्त बन गया । उसने निश्चय किया कि जो कुछ होने वाला है, वह पहले से ही नियत होता है । भगवती सूत्र में उपर्युक्त भविष्यवारणी का उल्लेख नहीं मिलता ।
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इधर चातुर्मास समाप्त होने पर भगवान् ने राजगृही के नालन्दा से विहार किया और 'कोल्लाग' सन्निवेश में जाकर 'बहुल ब्राह्मण' के यहाँ अन्तिम मास-खमरण का पारणा किया । गोशालक उस समय भिक्षा के लिये बाहर गया हुआ था । जब वह लौट कर तन्तुवायशाला में आया और भगवान् को नहीं देखा तो सोचा कि भगवान् नगर में कहीं गये होंगे। वह उन्हें नगर में जाकर ढूँढ़ने लगा । पर भगवान् का कहीं पता नहीं चला तो निराश होकर लौट आया और वस्त्र, कुंडिका, चित्रफलक आदि अपनी सारी वस्तुएँ ब्राह्मणों को देकर तथा शिर मुंडवाकर भगवान् की खोज में निकल पड़ा ।
प्रभु को ढूँढ़ते हुए वह कोल्लाग सन्निवेश पहुँचा और लोगों के मुख से बहुल ब्राह्मण की दान- महिमा सुनकर विचारने लगा कि अवश्य ही यह मेरे धर्माचार्य की महिमा होनी चाहिये। दूसरे का ऐसा तपः प्रभाव नहीं हो सकता । 'कोल्लाग सन्निवेश' के बाहर प्रणीत भूमि में उसने भगवान् के दर्शन किये । दर्शनानन्तर भाव-विभोर हो उसने प्रभु को वन्दन किया और बोला- 'आज से श्राप मेरे धर्माचार्य और मैं आपका शिष्य हूँ ।' उसके ऐसा बारम्बार कहने से भगवान् ने उसकी प्रार्थना स्वीकार की । २ रागरहित भी भगवान् ने भाविभाव को जानते हुए उसके वचन को स्वीकार किया । 3 इसके बाद छह वर्ष तक गोशालक प्रभु के साथ विचरता रहा ।
साधना का तीसरा वर्ष
कोल्लाग सन्निवेश से विहार कर प्रभु गोशालक के साथ स्वर्णखल पधारे । मार्ग में उनको खीर पकाते हुए कुछ ग्वाले मिले । गोशालक का मन खीर देखकर मचल उठा । उसने महावीर से कहा - "भगवन् ! कुछ देर ठहरें तो खीर खाकर लेंगे ।" सिद्धार्थ ने कहा- "खीर खाने को नहीं मिलेगी, क्योंकि इंडिया फूटने के कारण खीर पकने से पूर्व ही मिट्टी में मिल जायेगी ।"
१ साडियाम्रो य पाड़िया य कुडियाओ य पाहणाश्रो य चित्तफलगं च माहणे श्रायामेति प्रायामेता सउत्तरोट्ठे नुडं करोति... | [ भगवती श० १५।१ स० ५४१ पृ० १२१७] (स) प्रा० चू० १, पृ० २८३ ।
२ गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमट्ठे परिसुरोमि ।
३ नीरागोऽपि भब्यतार्थं, तद्भावं च विदन्नपि । तद्वचः
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[ भगवती शतक, १५।१ सूत्र ५४१ ] प्रत्यपादीशो, महान्तः क्व न वत्सलाः ।
[त्रि० श० पु० ब०,
१०।३।४१२]
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