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________________ स्वर्गवास भगवान् महावीर ५६७ त्याग क साथ उन्होंने संथारा ग्रहण किया और तत्पश्चात् अपश्चिम मरणान्तिक संलेखना से झूषित शरीर वाले वे काल के समय में काल कर अच्युत कल्प (बारहवें स्वर्ग) में देव रूप से उत्पन्न हए ।' वे स्वर्ग से च्युत हो महाविदेह में उत्पन्न होंगे और सिद्धि प्राप्त करेंगे । भ० महावीर के माता-पिता के स्वर्गारोहण के सम्बन्ध में आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के १५ वें अध्ययन में जो उल्लेख है, वह इस प्रकार "समरणस्स रणं भगवो महावीरस्स अम्मापियरो पासावचिज्जा समणोवासगा यावि होत्था। ते णं बहूई वासाइं समणोवासगपरियागं पालइत्ता छण्हं जीवनिकायारणं सारक्खरणनिमित्तं पालोइत्ता निंदिता गरिहित्ता पडिकम्मित्ता अहारिहं उत्तरगणपायच्छित्ताई पडिवज्जित्ता कुससंथारगं दुरूहिता भत्तं पच्चक्खायंति २ अपच्छिमाए मारणंतियाए संलेहणाए झूयिसरीरा कालमासे कालं किच्चा तं सरीरं विप्पजहित्ता अच्चए कप्पे देवत्ताए उववन्ना,, तो रणं आउक्खएणं, भवक्खएणं, टिइक्खएणं चुए चइत्ता महाविदेहे वासे चरमेणं उस्सासेणं सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खारणमंतं करिस्संति । त्याग की ओर माता-पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर महावीर की गर्भकालीन प्रतिज्ञा पूर्ण हो गई। उस समय वे २८.वर्ष के थे। प्रतिज्ञा पूर्ण होने से उन्होंने अपने ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्धन आदि स्वजनों के सम्मुख प्रव्रज्या की भावना व्यक्त की। किन्तु नन्दिवर्धन इस बात को सुनकर बहुत दुःखी हुए और बोले-“भाई ! अभी माता-पिता के वियोगजन्य दुःख को तो हम भूल ही नहीं पाये कि इसी बीच तुम भी प्रव्रज्या की बात कहते हो। यह तो घाव पर नमक छिड़कने जैसा है। अतः कुछ काल के लिए ठहरो, फिर प्रव्रज्या लेना। तब तक हम गत-शोक हो जायं ।"३ भगवान् ने अवधिज्ञान से देखा कि उन सब का इतना प्रबल स्नेह है कि इस समय उनके प्रवजित होने पर वे सब भ्रान्तचित्त हो जायेंगे और कई तो प्राण भी छोड़ देंगे। ऐसा सोच कर उन्होंने कहा-"अच्छा, तो मुझे कब तक ठहरना होगा ?" इस पर स्वजनों ने कहा- "कम से कम अभी दो वर्ष तक तो १ समणस्सणं भगवो महावीरस्स अम्मापियरो पासावच्चिज्जा, समणोवासगा यावि होत्था ।.........."अच्चुएकप्पे देवताए उववण्णा ।..........."महाविदेहवासे चरिमेणं । [प्रावश्यक चू., १ भा. पृ. २४६ ] २ अच्छह कंचिकालं, जाव अम्हे विसोगाणि जाताणि । प्राचा. २०१५ । (भावना) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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