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________________ ५६६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [माता-पिता का अविवाहित दोनों मान लिया जाय जैसा कि एक एकविंशतिस्थान प्रकरण' की टीका में लिखा है, तो सहज ही समाधान हो सकता है। दिगम्बर परम्परा के तिलोयपन्नत्ती, हरिवंशपुराण और पद्मपुराण में भी पांच तीर्थंकरों के कुमार रहने और शेष तीर्थंकरों के राज्य करने का उल्लेख मिलता है। लोक प्रकाश में स्पष्ट रूप में लिखा है कि मल्लिनाथ और नेमिनाथ के भोग-कर्म शेष नहीं थे, अत: उन्होंने बिना विवाह किये ही दीक्षा ग्रहण की। 'कुनार' शब्द का अर्थ, एकान्ततः कुपारा-अविवाहित नहीं होता। कुमार का अर्थ युवराज, राजकुमार भी होता है इसीलिये आवश्यक नियुक्ति दीपिका में 'नय इच्छिमाभिसेया, कुमार वासंमि पव्वइया' अर्थात् राज्याभिषेक नहीं करने से कुमारवास में प्रव्रज्या लेना माना है। माता-पिता का स्वर्गवास राजसी भोग के अनुकूल साधन पाकर भी ज्ञानवान् महावीर उनसे अलिप्त थे । वे संसार में रहकर भो कमलपत्र की तरह निर्लेप थे। उनके संसारवास का प्रमुख कारण था-कृतकर्म का उदयभोग और बाह्य कारण था-मातापिता का अतुल स्नेह । महावीर के माता-पिता भगवान् पार्श्वनाथ के श्रमणोपासक थे। बहत वर्षों तक श्रावक-धर्म का परिपालन कर जब अन्तिम समय निकट समझा तो उन्होंने प्रात्मा की शुद्धि के लिए अर्हत्, सिद्ध एवं प्रात्मा की साक्षी से कृत पाप के लिए पश्चात्ताप किया। दोषों से दूर हट कर यथायोग्य प्रायश्चित्त स्वीकार किया। डाभ के संथारे पर बैठ कर चतुर्विध पाहार के १ एकविंशतिस्थान प्रकरण में कहा है : 'वसुपुज्ज, मल्ली, नेमी, पासो, वीरो कुमार पव्वइया । रज्जं काउं सेसा, मल्ली नेमी अपरिणीया ।' ३४ । वासुपूज्य, मल्ली, नेमिनाथ. पार्श्वनाथ और महावीर कुमार अवस्था में प्रवजित हुए । शेष तीर्थंकरों ने राज्य किया। मल्लीनाथ और नेमिनाथ ये दो अविवाहित प्रवजित हुए। २ कुमाराः निर्गता गेहात्, पृथिवीपतयोऽपरे ।। पद्म पु०, २०६७ ३ प्रभोगफलकर्माणो, मल्लिनेमिजिनेश्वरौ । निरीयतुरनुद्वाही, कृतोद्वाहापरे जिनाः ।१००४। लोक० प्रकाश, सर्ग ३२, पृष्ठ ५२४ ४ (क) कुमारो युवराजेऽश्ववाहके बालके शुके । शब्दरत्न सम० कोष, पृ० २६८ (ख) युवराजः कुमारो भर्तृ दारकः । अभि० चि०, काण्ड २, श्लोक २४६, पृ० १३६ (ग) कुमार-सन, बॉय, यूथ, ए बॉय बिलो फाइव, ए प्रिन्स । प्राप्टे संस्कृत, इंग्लिश डि०, पृ० ३६३। (घ) युवराजस्तु कुमारो भर्तृ दारकः ।। अमरकोष, कांड १, नाट्यवर्ग, श्लोक १२, पृ० ७५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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