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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[त्याग की
ठहरना ही चाहिए।" महावीर ने उन सब की बात मान ली और बोले-"इस अवधि में मैं पाहारादि अपनी इच्छानुसार करूगा ।" स्वजनों ने भी सहर्ष यह बात स्वीकार की।
___ दो वर्ष से कुछ अधिक काल तक महावीर विरक्तभाव से घर में रहे. पर उन्होंने सचित्त जल गौर रात्रि-भोजन का उपयोग नहीं किया। ब्रह्मचर्य का भी पालन किया ।' टीकाकार के उल्लेखानुसार महावीर ने इस अवधि में प्राणातिपात की तरह असत्य, कृशील और अदत्त प्रादि का भी परित्याग कर रखा था । ते पाद-प्रक्षालन आदि क्रियाएं भी अचित्त जल से ही करते थे । भूमिशयन करते एवं क्रोधादि से रहित हो एकत्व भाव में लीन रहते ।२ इम प्रकारे एक वर्ष तक वैराग्य की साधना कर प्रभु ने वर्षीदान प्रारम्भ किया। प्रतिदिन एक करोड़ पाठ लाख स्वर्णमुद्राओं का दान करते हए उन्होंने वर्ष भर में तीन अरब अठ्यासी करोड़ एवं अस्सी लाख स्वरर्णमुद्रामों का दान किया । ..
तीस वर्ष की प्रायु होने पर ज्ञात-पुत्र महावीर की भावना सफल हुई । उस समय लोकान्तिक देव अपनी नियत मर्यादा के अनुसार आये और महावीर को निम्न प्रकार से निवेदन करने लगे.-"भगवन् ! मुनि दीक्षा ग्रहण कर समस्त जीवों के हितार्थ धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कीजिये।"
भगवान् महावीर ने भी अपने ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्धन और चाचा सुपार्श्व आदि की अनुमति प्राप्त कर दीक्षा की तैयारी की। नन्दिवर्धन ने भगवान् के निष्क्रमण की तैयारी के लिए अपने कौटुम्बिक पुरुषों को आदेश दिया-"एक हजार आठ सुवर्ण, रूप्य आदि कतश तैयार करो।"
आचारांग सूत्र के अनुसार श्रमरण भगवान् महावीर के अभिनिष्क्रमण के अभिप्राय को जान कर चार प्रकार के देव और देवियों के समूह अपने-अपने विमानों से सम्पूर्ण ऋद्धि और कान्ति के साथ आये और उत्तर क्षत्रियकुण्ड सन्निवेश में उतरे। वहाँ उन्होंने वैक्रिय शक्ति से सिंहासन की रचना की । सबने मिल कर महावीर को सिंहासन पर पूर्वाभिमख बैटाया। उन्होंने शतपाक एवं सहस्रपाक तेल से महावीर का अभ्यंगन किया और स्वच्छ जल से मज्जन १ (क) अविसाहिए दुवेवासे सीतोदगमभोच्चा रिणक्खंते, अफासुगं प्राहारं राइसत्तच
___अरगाहारेंतो अविसाहिए दुते वासे, सीतोदं प्रभोच्चा रिएक्खते [प्राव. चुणि. पृ.२४६] (ख) प्राचा,, प्र. ६, अ, ११। २ (क) प्राचा. प्र. टीका, पृ. २७५ । समिति (ख) बंभयारी प्रसंजमवावाररहिलो ठिमो, ण य फासुगेण विण्हातो, हत्यपादसोयणं
तु फासुगेगा प्रायमणं च ।......"णय बंधवेहिंवि प्रतिणेहं कतवं । प्राव. चू. १, पृ. २४६
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