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________________ श्रोर] भगवान् महावीर ५६६ कराया । गन्धकाषाय वस्त्र से शरीर पोंछा और गौशीर्ष चन्दन का लेपन किया । भार में हल्के और मूल्यवान् वस्त्र एवं आभूषण पहनाये । कल्पवृक्ष की तरह रामलंकृत कर देवों ने वर्द्धमान ( महावीर ) को चन्द्रप्रभा नामक शिविका में प्रारूढ़ किया । मनुष्यों, इन्द्रों और देवों ने मिल कर शिविका को उठाया । राजा नंदिवर्धन गजारूड़ हो चतुरंगिरणी सेना के साथ भगवान् महावीर के पीछे-पीछे चल रहे थे । प्रभु की पालकी के आगे घोड़े, दोनों ओर हाथी और पीछे रथ चल रहे थे । इस प्रकार विशाल जन समूह से घिरे प्रभु क्षत्रियकुण्ड ग्राम के मध्यभाग में होते हुए ज्ञातृ- खण्ड- उद्यान में आये और अशोक वृक्ष के नीचे शिविका से उतरे । आभूषणों एवं वस्त्रों को हटा कर प्रभु ने अपने हाथ से पंच मुष्टि लोच किया । वैश्रमरण देव ने हंस के समान श्वेत वस्त्र में महावीर के वस्त्रालंकार ग्रहण किये । शक्रेन्द्र ने विनयपूर्वक वज्रमय थाल में प्रभु के लु ंचित केश ग्रहण किये तथा "अनुजानासि " कह कर तत्काल क्षीर सागर में उनका विसर्जन किया । 1 दीक्षा उस समय हेमन्त ऋतु का प्रथम मास, मृगशिर कृष्णा दशमी तिथि का समय, सुव्रत दिवस, विजय नामक मुहूर्त और चतुर्थ प्रहर में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र था । ऐसे शुभ समय में निर्जल बेले की तपस्या से प्रभु ने दीक्षा ग्रहण की। शकेन्द्र के प्रदेश से दीक्षा प्रसंग पर बजने वाले वाद्य भी बन्द हो गये और सर्वत्र शान्ति छा गई । " प्रभु ने देव- मनुष्यों की विशाल परिषद् के समक्ष सिद्धों को नमस्कार करते हुए यह प्रतिज्ञा की -- "सव्वं मे प्रकरणिज्जं पावं कम्मं" । अब से मेरे लिए सब पाप कर्म प्रकरणीय हैं, अर्थात् मैं आज से किसी भी प्रकार के पापकार्य में प्रवृत्ति नहीं करूंगा । यह कहते हुए प्रभु ने सामायिक चारित्र स्वीकार किया। उन्होंने प्रतिज्ञा की - "करेमि सामाइयं सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि " । आज से सम्पूर्ण सावद्यकर्म का तीन करण और तीन योग से त्याग करता हूं।" जिस समय प्रभु ने यह प्रतिज्ञा ग्रहण की, उस समय देव-मनुष्यों की सम्पूर्ण परिषद् चित्रलिखित सी रह गई । सभी देव और मनुष्य शान्त एवं निर्निमेष - नेत्रों से उस नयनाभिराम एवं अन्तस्तलस्पर्श दृश्य को देख रहे थे, जो राग पर त्याग की विजय के रूप में उन सबके सामने प्रत्यक्ष था । १ (क) दिखी मणुस्सघोसो, तुरियरिणरणाम्रो य सक्कवयणेणं ।' farपामेव णिलुक्को, जाहे पडिवज्जइ चरित ं |१| प्राचा. भा. । (ख) प्रावश्यक चूरिंग, प्रथम भाग, पृ० २६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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