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________________ ५७० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [प्रथम उपसर्ग .. महावीर के सामने सुख-साधनों की कोई कमी नहीं थी और न कमी थी चाहने वालों की, प्यार और सत्कार करने वालों की, फिर भी सब कुछ ठुकरा कर वे साधना के कंटकाकीर्ण पथ पर बढ़ चले। चारित्र ग्रहण करते ही भगवान् को मनःपर्यवज्ञान हो गया। इससे ढाई द्वीप और दो समुद्र तक के समनस्क प्राणियों के मनोगत भावों को महावीर जानने लगे। महावीर का अभिग्रह और विहार सबको विदा कर प्रभु ने निम्न अभिग्रह धारण किया : "आज से साढ़े बारह वर्ष पर्यन्त, जब तक केवलज्ञान उत्पन्न न हो, तब तक मैं देह की ममता छोड़ कर रहूंगा, अर्थात् इस बीच में देव, मनुष्य या तियंच जीवों को अोर से जो भी उपसर्ग-कष्ट उत्पन्न होंगे, उनको समभावपूर्वक सम्यक्रूपेण सहन करूंगा।' अभिग्रह ग्रहण के पश्चात् उन्होंने ज्ञातखण्ड उद्यान से विहार किया। उस समय वहाँ उपस्थित सारा जनसमूह जाते हुए को तब तक देखता रहा, जब तक कि वे उनकी आंखों से ओझल नहीं हो गये। भगवान् संध्या के समय मुहूर्त भर दिन शेष रहते कुर्मारग्राम पहुंचे, तथा वहाँ ध्यानावस्थित हो गये। कई प्राचार्यों की मान्यता है कि साधना मार्ग में प्रविष्ट होकर जब भगवान् ने विहार किया तो मार्ग में एक वृद्ध ब्राह्मण मिला, जो वर्षीदान के समय नहीं पहुंच सका था। कुछ न कुछ मिलेगा, इस आशा से वह भगवान के पास पहंचा। भगवान् ने उसकी करुणाजनक स्थिति देख कर कंधे पर रखे हुए देवदृष्य वस्त्र में से प्राधा फाड़ कर उसको दे दिया। कल्पसूत्र मूल या अन्य किसी शास्त्र में प्राधा वस्त्र फाड़कर देने का उल्लेख नहीं है। प्राचारांग और कल्पसूत्र में १३ मास के बाद देवदूष्य का गिरना लिखा है, पर ब्राह्मण को प्राधा देने का उल्लेख नही है। हां, चूरिग टीका आदि में ब्राह्मण को प्राधा देवदूष्य वस्त्र देने का उल्लेख अवश्य मिलता है। प्रथम उपसर्ग और प्रथम पारणा जिस समय भगवान कुर्मारग्राम के बाहर स्थाणु की तरह अचल ध्यानस्थ खड़े थे, उस समय एक ग्वाला अपने बैलों सहित वहाँ पाया। उसने महावीर के १ वारस वासाई वोसटुकाए चियत्त देहे जे केई उवसग्गा समुप्पज्जंति, तं जहा, दिव्वा वा, माणुस्सा वा, तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पणे समाणे सम्मं सहिस्सामि, खमिस्सामि, अहियासिस्सामि ।। प्राचा०, श्रु० २, अ० २३, पत्र ३६१ । २ तो णं समणस्स भगवनो....... दिवसे मुहूत्तसेसे कुमारगाम समणुपत्ते । [प्राचारांग भावना] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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