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नामकरण]
भगवान् श्री संभवनाथ
. फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को मृगशिर नक्षत्र में स्वर्ग से च्यवन कर जब आप गर्भ में आये तब माता ने चौदह प्रमुख शुभ स्वप्न देखे और महाराज जितारि के मुख से स्वप्नफल सुनकर परम प्रसन्न हुई ।
उचित आहार-विहार और मर्यादा के नव महीने तक गर्भ की प्रतिपालना कर मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्दशी को श्रद्धं रात्रि के समय मृगशिर नक्षत्र में माता ने सुखपूर्वक पुत्र रत्न को जन्म दिया ।
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नामकररण
आपके जन्म समय में सारे संसार में आनन्द - मंगल की लहर फैल गई और जब से प्रभु गर्भ में आये तब से देश में प्रभूत मात्रा में साम्ब एवं मूंग आदि धान्य की उत्पत्ति हुई । चारों ओर देश की भूमि धान्य से लहलहा उठी, अत: माता-पिता ने श्रापका नाम संभवनाथ रखा ।'
विवाह धौर राज्य
बाल्यकाल पूर्ण कर जब संभवनाथ युवां हुए तो महाराज जितारि ने योग्य कन्याओं से उनका पाणिग्रहण संस्कार करवाया और पुत्र को राज्य देकर स्वयं प्रव्रजित हो गये ।
संभवनाथ पिता के आग्रह से सिंहासनारूढ़ तो हुए पर मन में भोगों से विरक्त रहे । उन्होंने संसार के विषयों को विषमिश्रित पक्वान्न की तरह माना । वे विचार करने लगे - " जैसे विषमिश्रित पक्वान्न खाने में मधुर होकर भी प्राणहारी होते हैं, वैसे ही संसार के भोग तत्काल मधुर और लुभावने होकर भी शुभ प्रात्मगुणों की घात करने वाले हैं। बहुत लज्जा की बात है कि मानव अनन्त पुण्य से प्राप्त इस मनुष्य जन्म को यों ही प्रारम्भ-परिग्रह और विषयकषाय के सेवन में गंवा रहे हैं। अमृत का उपयोग लोग पैरों को धोने में कर रहे हैं। मुझे चाहिये कि संसार को सम्यक् बोध देने के लिये मैं स्वयं त्यागमार्ग में अग्रणी होकर जन-समाज को प्रेरणा प्रदान करू ।"
दीक्षा
आपने भोगावली कर्मों को चुकाने के लिये चवालीस लाख पूर्व मौर चार पूर्वांग काल तक राज्यपद का उपभोग किया, फिर स्वयं विरक्त हो गये, क्योंकि स्वयं - बुद्ध होने के कारण तीर्थंकरों को किसी दूसरे के उपदेश की प्रावश्यकता नहीं होती । फिर भी मर्यादा के अनुसार लोकांन्तिक देवों ने आकर १ गब्भत्थे जिरिंगदे णिहारणाइयं बहुयं संभूयं, जायम्मिय रजस्स सयलस्रू वि सुहं संभूयं ति कलिकरण संभवाहिहाणं कुरणति सामिणो ॥ चौ० महापुरिस प०, पृ० ७२ ।
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