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________________ भगवान् श्री संभवनाथ भगवान् अजितनाथ के बहुत समय बाद तीसरे तीर्थंकर श्री संभवनाथ हुए। आपने राजा विपुलवाहन के भव में उच्च कररणी का बीज बोया जिससे तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया । पूर्वभव किसी समय क्षेमपुरी के राजा विपुलवाहन के राज्यकाल में भयंकर दुष्काल पड़ा । प्रजावत्सल राजा को इसकी बड़ी चिन्ता हुई । उसने देखा कि लोग भोजन के लिये तड़प रहे | करुणाशील नृपति इस भयंकर दृश्य को नहीं देख सका । उसने भंडारियों को प्राज्ञा दी कि राज्य के अन्न भण्डारों को खोल कर प्रजाजनों में बांट दिया जाय | इतना ही नहीं उसने संत और प्रभु भक्तों की भी नियमानुसार सुधि ली । वह साधु-साध्वियों को निर्दोष तथा प्राशुक आहार स्वयं देता और सज्जन एवं धर्मनिष्ठ जनों को अपने सामने खिला कर संतुष्ट करता । इस प्रकार निर्मल भाव से चतुविध संघ की सेवा करने के कारण उसने तीर्थंकर पद के योग्य शुभ कर्म उपार्जित कर लिये । एक बार संध्या के समय बादलों को बनते और बिखरते देखकर उसे संसार की नश्वरता का सही स्वरूप ध्यान में आया और मन में विरक्ति हो गई। प्राचार्य स्वयंप्रभ की सेवा में दीक्षित होकर उसने संयम धर्म की आराधना की और अन्त में समाधि मरण से काल कर नवम - कल्प- आनत' देवलोक में देव रूप से उत्पन्न हुआ । जन्म देवलोक से निकल कर उसी विपुलवाहन के जीव ने श्रावस्ती नगरी के महाराज जितारि के यहां पुत्र रूप में जन्म लिया। इनकी माता का नाम रानी सेनादेवी था । १ सतरिसय द्वार, द्वार १२, गा० ५५-५६ में सप्तम ग्रैवेयक और तिलोयपत्रत्ति में प्रोग्रैवेयक से च्यवन होने का उल्लेख है । २ तिलोयपन्नत्ति ( गा० ५२६ से ५४६ ) में सुसेना नाम दिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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