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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
धर्म परिवार
प्रार्थना की और प्रभु ने भी वर्षीदान देकर प्रव्रज्या ग्रहण करने की भावना प्रकट की।
वर्षीदान के पश्चात् जब भगवान दीक्षित होने को पालकी में बैठकर सहस्राम्रवन में आये तब उनके त्याग से प्रभावित होकर अन्य एक हजार राजा भी उन्हीं के साथ घर से निकल पड़े और मंगसिर सुदी पूरिणमा को मृगशिर नक्षत्र में पंच-मुष्टिक लुचन कर व सम्पूर्ण पाप कर्मों का परित्याग कर प्रभु संयम-धर्म में दीक्षित हो गये।
आपके परम उच्च त्याग से देव, दानव और मानव सभी बड़े प्रभावित थे, क्योंकि आप चक्षुः, श्रोत्र आदि पांच इन्द्रियों पर और क्रोध, मान, माया. एवं लोभ रूप चार कषायों पर पूर्ण विजय प्राप्त कर मुडित हुए । दीक्षित होते ही आपको मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न हुमा और जन-जन के मन पर आपकी दीक्षा का बड़ा प्रभाव रहा।
विहार और पारणा जिस समय आपने दीक्षा ग्रहण की, उस समय आपको निर्जल षष्ट-भक्त का तप था । दीक्षा के दूसरे दिन प्रभु सावत्थी नगरी में पधारे और सुरेन्द्र राजा के यहां प्रथम पारणा किया। फिर तप करते हए विभिन्न ग्राम नगरों में विचरते रहे।
केवलज्ञान चौदह वर्षों की छद्मस्थकालीन कठोर तप:साधना से अापने शुक्ल ध्यान की अग्नि में मोहनीय कर्म को सर्वथा भस्मीभूत कर डाला, फिर क्षीगणमोह गुणस्थान के अन्त में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्त राय कर्मों का यगपद क्षय कर कातिक कृष्णा पंचमी को श्रावस्ती नगरी में मगशिर नक्षत्र में केवलज्ञान, केवलदर्शन की प्राप्ति की।
केवलज्ञान होने के पश्चात् धर्म-देशना देकर अापने साधु, माध्वी, धावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना की और फिर पाप भाव-तीर्थकर कहलाये।
धर्म परिवार अापके मुख्य शिष्य चारुजी हुए । आपका धर्म-संघ निम्न प्रकार था :गरगधर
- एक सौ दो (१०२) केवली
- पन्द्रह हजार (१५,०००) मनःपर्यवज्ञानी - बारह हजार एक सौ पचास (१२,१५०)
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