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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[ सोमिल के प्रश्नोत्तर
सरिसव और मास के संतोषजनक उत्तर पाने के बाद सोमिल ने पूछा“भगवन् ! कुलत्था आपके भक्ष्य हैं या अभक्ष्य ?"
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महावीर ने कहा - "सोमिल ! कुलत्था भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी । भक्ष्याभक्ष्य उभयरूप कहने का कारण इस प्रकार है - " शास्त्रों में 'कुलत्था' के अर्थ कुलीन स्त्री और कुलधी धान्य दो किये गये । कुल-कन्या, कुल-वधू प्रौर कुल - माता ये तीनों 'कुलत्था' अभक्ष्य हैं । धान्य कुलत्या जो अचित्त, एषणीय, निर्दोष, याचित और लब्ध हैं, वे भक्ष्य हैं। शेष सचित्त, सदोष अयाचित श्रीर अलब्ध कुलत्था निर्ग्रन्थों के लिये अभक्ष्य हैं ।"
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अपने इन अटपटे प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर पा लेने के बाद महावीर की तत्त्वज्ञता को समझने के लिये उसने कुछ सैद्धान्तिक प्रश्न पूछे - "भगवन् ! आप एक हैं अथवा दो ? अक्षय, अव्यय और अवस्थित हैं अथवा भूत, भविष्यत्, वर्तमान के अनेक रूपधारी हैं ?
महावीर ने कहा - " मैं एक भी हूँ और दो भी हूँ। अक्षय हूँ, अव्यय हूँ और अवस्थित भी हूँ। फिर अपेक्षा से भूत, भविष्यत् और वर्तमान के नाना रूपधारी भी हूँ ।"
अपनी बात का स्पष्टीकरण करते हुए प्रभु ने कहा - " द्रव्यरूप से मैं एक आत्म-द्रव्य हूँ । उपयोग गुण की दृष्टि से ज्ञान, उपयोग और दर्शन उपयोग रूप चेतना के भेद से दो हूँ । ग्रात्म प्रदेशों में कभी क्षय, व्यय और न्यूनाधिकता नहीं होती इसलिये अक्षय, अव्यय और अवस्थित हूँ । पर परिवर्तनशील उपयोगपर्यायों की अपेक्षा भूत, भविष्य एवं वर्तमान का नाना रूपधारी भी हूँ ।" "
सोमिल ने अद्वैतद्वत, नित्यवाद और क्षणिकवाद जैसे वर्षों चर्चा करने पर भी न सुलझाने वाले दर्शन के प्रश्न रखे, पर महावीर ने अपने अनेकान्त सिद्धान्त से उनका क्षणभर में समाधान कर दिया, इससे सोमिल बहुत प्रभावित हुआ । उसने श्रद्धापूर्वक भगवान् की देशना सुनी, श्रावकधर्म स्वीकार किया और उनके चरणों में वन्दना कर अपने घर चला गया । सोमिल ने श्रावकधर्म की साधना कर अन्त में समाधिपूर्वक आयु पूर्ण किया और स्वर्गगति का अधिकारी बना ।
भगवान् का यह चातुर्मास 'वारिणयग्राम' में ही पूर्ण हुआ ।
केवलीचर्या का उन्नीसवाँ वर्ष
वर्षाकाल समाप्त कर भगवान् कौशल देश के साकेत, सावत्थी आदि
१ भम०, १५ शतक, १० उ०, सूत्र ६४७ ।
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