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________________ सोमिल के प्रश्नोत्तर ] भगवान् महावीर ६५ε रखना मेरा इन्द्रिय यापनीय हैं और क्रोध, मान, माया, लोभ को जागृत नहीं होने देना एवं उन पर नियन्त्रण रखना मेरा नो-इन्द्रिय यापनीय है ।" सोमिल ने फिर पूछा -भगवन् ! आपका अव्याबाध क्या है ? भगवान् बोले – “सोमिल ! शरीरस्थ वात, पित्त, कफ और सन्निपातजन्य विविध रोगातंकों को उपशान्त करना एवं उनको प्रकट नहीं होने देना, यही मेरा अव्याबाध है ।" सोमिल ने फिर प्रासु विहार के लिये पूछा तो महावीर ने कहा"सोमिल ! आराम, उद्यान, देवकुल, सभा, प्रपा आदि स्त्री, पशु-पण्डक रहित बस्तियों में प्रासुक एवं कल्पनीय पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक स्वीकार कर विचरना ही मेरा प्रासुक विहार है ।" उपर्युक्त प्रश्नों में प्रभु को निरुत्तर नहीं कर सकने की स्थिति में सोमिल ने भक्ष्याभक्ष्य सम्बन्धी कुछ अटपटे प्रश्न पूछे- “भगवन् ! सरिसव आपके भक्ष्य है या अभक्ष्य ?" महावीर ने कहा - "सोमिल ! सरिसव को मैं भक्ष्य भी मानता हूँ और अभक्ष्य भी । वह ऐसे कि ब्राह्मण-ग्रन्थों में 'सरिसव' शब्द के दो अर्थ होते हैं, एक सदृशवय और दूसरा सर्षप याने सरसों । इनमें से समान वय वाले मित्तसरिसव श्रमरण निर्ग्रन्थों के लिये अभक्ष्य हैं और धान्य सरिसव जिसे सर्षप कहते हैं, उसके भी सचित्त और चित्त, एषणीय - अनेषणीय याचित- अयाचित और लब्ध- अलब्ध, ऐसे दो-दो प्रकार होते हैं । उनमें हम अचित्त को ही निर्ग्रन्थों के लिये भक्ष्य मानते हैं, वह भी उस दशा में कि यदि वह एषणीय, याचित और लब्ध हो | इसके विपरीत सचित्त, अनेषणीय और प्रयाचित आदि प्रकार के सरिसव श्रमणों के लिये अभक्ष्य हैं । इसलिये मैंने कहा कि सरिसव को मैं भक्ष्य और अभक्ष्य दोनों मानता हूँ ।" सोमिल ने फिर दूसरा प्रश्न रखा - "मास आपके लिये भक्ष्य है या अभक्ष्य ?" महावीर ने कहा - "सोमिल ! सरिसव के समान 'मास' भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी । वह इस तरह कि ब्राह्मण ग्रन्थों में मास दो प्रकार के कहे गये हैं, एक द्रव्य मास और दूसरा काल मास । काल मास जो श्रावण से प्राषाढ़ पर्यन्त बारह हैं, वे अभक्ष्य हैं । रही द्रव्य मास की बात, वह भी अर्थ मास और धान्य मास के भेद से दो प्रकार का है । अर्थ मास - सुवर्ण मास और रौप्य मास श्रमणों के लिये अभक्ष्य हैं । अब रहा धान्य मास, उसमें भी शस्त्र परिणतचित्त, एषणीय, याचित और लब्ध ही श्रमरणों के लिये भक्ष्य है । शेष सचित्त आदि विशेषणवाला धान्य मास अभक्ष्य है ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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