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________________ ६५८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [दशार्णभद्र को प्रतिबोध श्रमरिणयों ने भगवान् का वचन सविनय स्वीकार किया । चम्पा में इस प्रकार प्रभु ने बहुत उपकार किया। दशार्णभद्र को प्रतिबोध चम्पा से विहार कर भगवान् ने दशार्णपुर की ओर प्रस्थान किया । वहाँ का महाराजा प्रभु महावीर का बड़ा भक्त था । उसने बड़ी धूमधाम से प्रभु-वंदन की तैयारी की और चतुरंग सेना व राज-परिवार सहित सजधज कर वन्दन को निकला । उसके मन में विचार आया कि उसकी तरह उतनी बड़ी ऋद्धि के साथ भगवान् को वन्दन करने के लिए कौन आया होगा? इतने में सहसा गगनमंडल से उतरते हुए देवेन्द्र की ऋद्धि पर दृष्टि पड़ी तो उसका गर्व चूर-चूर हो गया। उसने अपने गौरव की रक्षा के लिये भगवान् के पास तत्क्षण दीक्षा ग्रहण की और श्रमण-संघ में स्थान पा लिया। देवेन्द्र, जो उसके गर्व को नष्ट करने के लिये अदभत ऋद्धि से आया हुआ था, दशार्णभद्र के इस साहस को देखकर लज्जित हुआ और उनका अभिवादन कर स्वर्गलोक की ओर चला गया । सोमिल के प्रश्नोत्तर दशार्णपुर से विदेह प्रदेश में विचरण करते हुए प्रभु वारिणयग्राम पधारे। वहाँ उस समय 'सोमिल' नाम का ब्राह्मण रहता था, जो वेद-वेदांग का जानकार और पाँच सौ छात्रों का गरु था। नगर के 'दति पलाश' उद्यान में महावीर का आगमन सुनकर उसकी भी इच्छा हुई कि वह महावीर के पास जाकर कुछ पूछे। सौ छात्रों के साथ वह घर से निकला और भगवान् के पास आकर खड़े-खड़े बोला-"भगवन् ! आपके विचार से यात्रा, यापनीय, अव्याबाध और प्रासुक विहार का क्या स्वरूप है ? तुम कैसी यात्रा मानते हो?" महावीर ने कहा-“सोमिल ! मेरे मत में यात्रा भी है, यापनीय, अव्याबाध और प्रासुक विहार भी है । हम तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान और आवश्यक आदि क्रियाओं में यतनापूर्वक चलने को यात्रा कहते हैं । शुभ योग में यतना ही हमारी यात्रा है।"२ सोमिल ने फिर पूछा-"यापनीय क्या है ?" महावीर ने कहा-“सोमिल यापनीय दो प्रकार का है, इन्द्रिय यापनीय और नो इन्द्रिय यापनीय । श्रोत्र, चक्ष, घ्राण, जिह्वा और स्पर्शेन्द्रिय को वश में १ (क) उत्तराध्ययन १८ प्र० की टीका. (ख) त्रिष०, १० ५०, १० स० । २ भगवती सू०, १८ श०, उ० १०, सू० ६४६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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