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केवलीचर्या का १८वाँ वर्ष] .
भगवान् महावीर
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कहना ही क्या ? श्रमणोपासक पन्द्रह कर्मादानों के त्यागी' होते हैं, क्योंकि अंगार-कर्म आदि महा हिंसाकारी खरकर्म श्रावक के लिए त्याज्य कहे गये हैं।
इस वर्ष बहुत से साधुओं ने राजगह के विपुलाचल पर अनशन कर प्रात्मा का कार्य सिद्ध किया । भगवान् का यह वर्षाकाल भी राजगृही में सम्पन्न हुआ।
केवलीचर्या का प्रगहरवाँ वर्ष
राजगह का चातुर्मास पूर्ण कर भगवान ने चम्पा की पोर विहार किया और उसके पश्चिम भाग, पृष्ठचम्पा नामक उपनगर में विराजमान हुए । प्रभ के विराजने की बात सुनकर पृष्ठचम्पा का राजा शाल और उसके छोटे भाई युवराज महाशाल ने भक्तिपूर्वक प्रभु का उपदेश सुना और शालनाजा न संहार से विरक्त होकर प्रभु के चरणों में श्रमणधर्म स्वीकार करना चाहा । जब उसन यवराज महाशाल को राज्य सम्भालने की बात कही तो उसने उत्तर दिया-- "जैसे आप संसार से विरक्त हो रहे हैं, वैसे मैं भी प्रभु के उपदेश सुनकर प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ।" इस प्रकार दोनों के विरक्त हो जाने पर शाल ने अपने भानजे 'गाँगली' नामक राजकुमार को बुलाया और उसे राज्यारूढ़ कर दोनों ने प्रभु के चरणों में श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की।
पष्ठचम्पा से भगवान चम्पा के पूर्णभद्र चैत्य में पधारे । भगवान महावीर के पदार्पण की शुभसूचना पाकर वहाँ के प्रमुख लोग वन्दन करने को गये। श्रमणोपासक कामदेव, जो उन दिनों अपने ज्येष्ठ पुत्र को गहभार संभलाकर विशेष रूप से धर्मसाधना में तल्लीन था, वह भी प्रभु के चरण-वन्दन हेतू पगभद्र उद्यान में आया और देशना श्रवण करने लगा।
धर्म-देशना पूर्ण होने पर प्रभु ने कामदेव को सम्बोधित करते हुए कहा"कामदेव ! रात में किसी देव ने तुमको पिशाच, हाथी और सर्प के रूप बनाकर विविध उपसर्ग दिये और तुम अडोल रहे, क्या यह सच है ?"
कामदेव ने विनयपूर्वक कहा-"हाँ भगवन् ! यह ठीक है ।"
भगवान् ने श्रमण निर्ग्रन्थों को सम्बोधित कर कहा- "पायों ! कामदेव ने गहस्थाश्रम में रहते हए दिव्य मानषी और पशु सम्बन्धी उपसर्ग समभाव से सहन किये हैं । श्रमण निर्ग्रन्थों को इससे प्रेरणा लेनी चाहिये ।" श्रमण
१ भगवती सूत्र, श० ८, उ०५। २ उपासक दशा सूत्र, २ अ० सू० ११४ ।
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