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________________ ६५६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलीचर्या का १७वा वर्ष एकादश अंग का अध्ययन किया और अन्त में सकल कर्मों का क्षय कर निर्वाण प्राप्त किया। भगवान के पीयषवर्षी अमोघ उपदेशों से सत्पथ को पहिचान कर यहाँ कई धर्मार्थियों ने मुनि-धर्म की दीक्षा ली, उनमें पोट्टिल अनगार का नाम उल्लेखनीय है । कुछ काल पश्चात् महावीर हस्तिनापुर से ‘मोका' नगरी होते हुए फिर वारिणयग्राम पधारे और वहीं पर वर्षाकाल पूर्ण किया। केवलीचर्या का सत्रहवां वर्ष वर्षाकाल पूर्ण होते ही भगवान् विदेह भूमि से मगध की ओर पधारे और विहार करते हुए राजगृह के 'गुरणशील' चैत्य में समवशरण किया । राजगह में उस समय निर्ग्रन्थ प्रवचन को मानने वालों की संख्या बहुत बड़ी थी, फिर भी अन्य मतावलम्बियों का भी प्रभाव नहीं था। बौद्ध, आजीवक और अन्यान्य सम्प्रदायों के श्रमण एवं गृहस्थ भी अच्छी संख्या में वहाँ रहते थे । वे समयसमय पर एक-दूसरे की मान्यताओं पर विचार-चर्चा भी किया करते थे। एक समय इन्द्रभूति गौतम ने आजीवक भिक्षुओं के सम्बन्ध में भगवान से पूछा-"प्रभो! आजीवक, स्थविरों से पूछते हैं कि यदि तुम्हारे श्रावक का, जब वह सामायिक व्रत में रहा हा हो, कोई भाण्ड चोरी चला जाय तो सामायिक पूर्ण कर वह उसकी तलाश करता है या नहीं? यदि तलाश करता है तो वह अपने भांड की तलाश करता है या पराये की ?" इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया-"गौतम ! वह अपने भाण्ड की तलाश करता है, पराये की नहीं । सामायिक और पोषधोपवास से उसका भाण्ड, प्रभाण्ड नहीं होता है। केवल जब तक वह सामायिक आदि व्रत में रहता है, तब तक उसका भाण्ड उसके लिए प्रभाण्ड माना जाता है । आगे चलकर प्रभु ने श्रावक के उनचास भंगों का परिचय देते हुए श्रमणोपासक और आजीवक का भेद बतलाया। प्राजीवक अरिहन्त को देव मानते और माता-पिता की सेवा करने वाले होते हैं। वे गूलर, बड़, बोर, शहतूत और पीपल-इन पाँच फलों और प्याजलहसुन प्रादि कंद के त्यागी होते हैं। वे ऐसे बैलों से काम लेते हैं. जिनको बधिया नहीं किया जाता मोर न जिनका नाक ही बेधा जाता । जब पाजीवक उपासक भी इस प्रकार निर्दोष जीविका चलाते हैं तो श्रमणोपासकों का तो - . १ भग० श० ११, उ० ६, सूत्र ४१८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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