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________________ राजर्षि] भगवान् महावीर ६५५ स्थान, शय्या-भाण्ड, कमंडलु, दण्ड, काष्ठ और अपने आपको एकत्र कर मधु एवं घृत आदि से आहुति देकर चरु तैयार किया। फिर वैश्वदेव-बलि तथा अतिथिपूजा करने के पश्चात् स्वयं ने भोजन किया।' इस तरह लम्बे समय तक आतापनापूर्वक तप करते हए शिव राजर्षि को विभंग ज्ञान उत्पन्न हो गया। वे सात समुद्र और सात द्वीप तक जानने व देखने लगे। इस नवीन ज्ञानोपलब्धि से शिव राजर्षि के मन में प्रसन्नता हुई और वे सोचने लगे- "मुझे तपस्या के फलस्वरूप विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न हुआ है । सात द्वीप और सात समुद्र के आगे कुछ नहीं है ।" शिव राजर्षि ने हस्तिनापुर में जाकर अपने ज्ञान की बात सुनाई और कहा-“सात द्वीप और समुद्रों के आगे कुछ नहीं है।" उस समय श्रमण-भगवान्-महावीर भी हस्तिनापुर आये हुए थे । भगवान् की आज्ञा लेकर इन्द्रभूति (गौतम) हस्तिनापुर में भिक्षार्थ निकले तो उन्होंने लोक-मख से सात द्वीप और सात समुद्र की बात सुनी । गौतम ने आकर भगवान् से पूछा- "क्या शिव राजर्षि का सात द्वीप और सात समुद्र का कथन ठीक है?" भगवान् ने सात द्वीप, सात समुद्र सम्बन्धी शिव राजर्षि की बात को मिथ्या बतलाते हुए कहा-"इस धरातल पर जंबूद्वीप आदि असंख्य द्वीप और असंख्य समुद्र हैं।" लोगों ने गौतम के प्रश्नोत्तर की बात सुनी तो नगर में सर्वत्र चर्चा होने लगी कि भगवान महावीर कहते हैं कि द्वीप और समुद्र सात ही नहीं, असंख्य हैं । शिव राजर्षि को यह सुनकर शंका हुई, संकल्प-विकल्प करते हुए उनका वह प्राप्त विभंग-ज्ञान चला गया। शिव राजर्षि ने सोचा-"अवश्य ही मेरे ज्ञान में कमी है, महावीर का कथन सत्य होगा।" वे तापसी-आश्रम से निकलकर नगर के मध्य में होते हुए सहस्राम्रवन पहुँचे और महावीर को वन्दन कर योग्य स्थान पर बैठ गये। श्रमण-भगवान्-महावीर ने जब धर्म-उपदेश दिया तो शिव राजर्षि के सरल व कोमल मन पर उसका बड़ा प्रभाव पड़ा। वे विनयपूर्वक बोले"भगवन् ! मैं आपकी वाणी पर श्रद्धा करता हूँ। कृपा कर मुझे निर्ग्रन्थ धर्म में दीक्षित कीजिये।" उन्होंने तापसी उपकरणों का परित्याग किया और भगवच्चरणों में पंच मुष्टि लोचकर श्रमण-धर्म स्वीकार किया। निर्ग्रन्थमार्ग में प्रवेश करने के बाद भी वे विविध तप करते रहे । उन्होंने १ भग० शतक ११, उ० ६, सू० ४१८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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