________________
६५४
जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[शिव
केशी और गौतम की इस ज्ञान-गोष्ठी से श्रावस्ती में ज्ञान और शील धर्म का बड़ा अभ्युदय हुआ । उपस्थित सभी सभासद इस धर्म-चर्चा से सन्तुष्ट होकर सन्मार्ग पर प्रवृत्त हुए । श्रमरण भगवान् महावीर भी धर्म-प्रचार करते हुए कुरु जनपद होकर हस्तिनापुर की ओर पधारे और नगर के बाहर सहस्राम्रवन में अनुज्ञा लेकर विराजमान हुए।
शिव राषि
हस्तिनापुर में उस समय राजा शिव का राज्य था। वे स्वभाव से संतोषी, भावनाशील और धर्मप्रेमी थे । एक बार मध्यरात्रि के समय उनकी निद्रा भंग हई तो वे राज-काज की स्थिति पर विचार करते-करते सोचने लगे-"अहो! इस समय मैं सब तरह से सुखी हूँ। धन, धान्य, राज्य, राष्ट्र, पुत्र, मित्र, यान, वाहन, कोष और कोष्ठागार आदि से बढ़ रहा हूँ । वर्तमान में शुभ कर्मों का फल भोगते हुए मुझे भविष्य के लिए भी कुछ कर लेना चाहिये । भोग और ऐश्वर्य का कीट बनकर जीवन-यापन करना प्रशंसनीय नहीं होता । अच्छा हो, कल सूर्योदय होने पर मैं लोहमय कड़ाह, कड़च्छूल और ताम्रपात्र बनवाकर 'शिवभद्रकुमार' को राज्याभिषिक्त करूं और स्वयं गंगातटवासी, दिशापोषक वानप्रस्थों के पास जाकर प्रव्रज्या ग्रहण कर लूं।"
प्रातःकाल संकल्प के अनुसार उन्होंने सेवकजनों को आज्ञा देकर शिवभद्र कुमार का राज्याभिषेक किया। तदनन्तर लोहमय भाण्ड आदि बनवाकर उन्होंने मित्र-ज्ञातिजनों का भोजनादि से उचित सत्कार किया एवं उनके सम्मुख अपने विचार व्यक्त किये । सबकी सम्मति से तापसी-दीक्षा ग्रहण कर उन्होंने यह प्रतिज्ञा की-"मैं निरन्तर छट्ठ-बेले की तपस्या करते हुए दिशा चक्रवाल से दोनों बाहें उठाकर सूर्य के सम्मुख पातापना लेते हुए विचरूंगा।" प्रातःकाल होने पर उन्होंने वैसा ही किया।
अब वह राजर्षि बन गया । प्रथम छ? तप के पारणे में शिव राजर्षि वल्कल पहने तपोभूमि से कुटिया में आये और कठिन संकायिका-बाँस की छाव को लेकर पूर्व दिशा को पोषण करते हुए बोले- "पूर्व दिशा के सोम महाराज प्रस्थान में लगे हुए शिव राजर्षि का रक्षण करें और कंद, मूल, त्वचा, पत्र, फूल, फल आदि के लिए अनुज्ञा प्रदान करें।" ऐसा कहकर वे पूर्व की ओर चले और वहाँ से पत्रादि छाब में भरकर तथा दर्भ, कुश, समिधा आदि हवनीय सामग्री लेकर लौटे । कठिन संयामिका को रखकर प्रथम उन्होंने वेदिका का निर्माण किया और फिर दर्भ सहित कलश लिए गंगा पर गये । वहाँ स्नान किया और देव-पितरों का तर्पण कर भरे कलश के साथ वे कुटिया में पहुँचे । वहाँ विधिपर्वक अररिण से अग्नि उत्पन्न की और अग्ति-कुण्ड के दाहिने बाज सक्था, वल्कल,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org