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ववाह और राज्य] भगवान् श्री कुथुनाथ
२४३ होने पर आपने षट्खण्ड-पृथ्वी को जीत कर चक्रवर्ती-पद प्राप्त किया एवं चौदह रत्न, नव-निधान और सहस्रों राजाओं के अधिनायक हुए ।
बाईस हजार वर्ष तक माण्डलिक राजा के पद पर रह कर तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष तक चक्रवर्ती-पद से राज्य का शासन करते हुए प्रभु समुचित रीति से प्रजा का पालन करते रहे।
दीक्षा और पारणा भोग्य-कर्म क्षीण होने पर प्रभु ने दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा की । उस समय लोकान्तिक देवों ने आकर प्रार्थना की---"भगवन् ! धर्म-तीर्थ को प्रवृत्त कीजिये।"
एक वर्ष तक याचकों को इच्छानुसार दान देकर आपने वैशाख कृष्णा पंचमी को कृत्तिका नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षार्थ निष्क्रमण किया और सहस्राम्र वन में पहुंचकर छट्ठ-भक्त की तपस्या से सम्पूर्ण पापों का परित्याग कर विधिवत् दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा ग्रहण करते ही आपको मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न हो गया।
दूसरे दिन विहार कर प्रभु 'चक्रपुर नगर में पधारे और राजा व्याघ्रसिंह के यहां प्रथम पारणा ग्रहण किया।
केवलज्ञान
विविध प्रकार की तपस्या करते हुए प्रभु छद्मस्थ-चर्या में सोलह वर्ष तक ग्रामानुग्राम विचरते हुए पुन: सहस्राम्र वन में पधारे और ध्यानस्थित हो गये। शुक्लध्यान के दूसरे चरण में तिलक वृक्ष के नीचे मोह और अज्ञान का सर्वथा नाश कर चैत्र शुक्ला तृतीया के दिन कृत्तिका के योग में प्रभु ने केवलज्ञान की प्राप्ति की।
. केवली होकर देव-मानवों की विशाल सभा में श्रतधर्म-चारित्रधर्म की महिमा बतलाते हुए चतुर्विध-संघ की स्थापना कर आप भाव-तीर्थंकर कहलाये।
धर्म-परिवार भगवान् कुथुनाथ के संघ में निम्न धर्म-परिवार था :गणधर एवं गण -पैंतीस [३५] स्वयम्भू आदि गणधर एवं
३५ ही गरण केवली
- तीन हजार दो सौ [३,२००] मनःपर्यवज्ञानी - तीन हजार तीन सौ चालीस [३,३४०]
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