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________________ भगवान् श्री कुंथुनाथ भगवान् श्री शान्तिनाथ के बाद सत्रहवें तीर्थंकर श्री कुथुनाथ हुए। पूर्वभव पूर्व-विदेह की खड़ गी नगरी के महाराज सिंहावह संसार से विरक्ति होने के कारण संवराचार्य के पास दीक्षित हुए और अर्हःभक्ति आदि विशिष्ट स्थानों की आराधना कर उन्होंने तीथंकर-नामकर्म का उपार्जन किया। अन्तिम समय में समाधिपूर्वक आयु पूर्ण कर सिंहावह सर्वार्थसिद्ध विमान में अहमिन्द्र रूप से उत्पन्न हुए । जन्म सर्वार्थसिद्ध विमान से निकल कर सिंहावह का जीव हस्तिनापुर के महाराज वसु की धर्मपत्नी महारानी श्रीदेवी की कुक्षि मे श्रावण बदी नवमी को कृत्तिका नक्षत्र में गर्भरूप से उत्पन्न हुआ । उसो रात्रि को महारानी श्रीदेवी ने सर्वोत्कृष्ट महान् पुरुष के जन्म-सूचक चौदह परम-मंगलप्रदायक-शुभस्वप्न देखे । गर्भकाल पूर्ण होने पर वैशाख शुक्ला चतुर्दशी को कृतिका नक्षत्र में सुखपूर्वक प्रभु ने जन्म धारण किया। नामकरण दस दिन तक जन्म-महोत्सव प्रामोद-प्रमोद के साथ मनाने के बाद महाराज वसुसेन ने उपस्थित मित्रजनों के समक्ष नामकरण का हेतु प्रस्तुत करते हुए कहा-"गर्भ-समय में बालक की माता ने कुथु नाम के रत्नों की राशि देखी, अतः बालक का नाम कुथुनाथ रखा जाता है ।"' विवाह और राज्य बाल्यकाल पूर्ण कर युवावस्था में प्रवेश करने के बाद प्रभु ने भोग्य-कर्म को समाप्त करने के लिए योग्य राज-कन्यामों से पाणिग्रहण किया। तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष के बाद प्रायुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न १ सुमिणे य धूमं दळूण जणणी विउद ति, गम्भगये य कुंथुसमाणा सेसपड़िवक्खा दिट्ठत्ति काऊरणं कुथु त्ति णामं कयं भगवप्रो ।। च. म. पु. च., पृ. १५२ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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