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चक्रवर्ती ]
भगवान् श्री अरिष्टनेमि
हमारे पिता ने पुरोहित नमूची से कहा - "यदि तुम मेरे इन दोनों पुत्रों को सम्पूर्ण कलाओं में निष्णात करना स्वीकार कर लो तो मैं तुम्हें गृहतल में प्रच्छन्न रूप से सुरक्षित रखूंगा । अन्यथा तुम्हारे प्राण किसी भी दशा में नहीं बच सकते । "
"अपने प्राणों के रक्षार्थ पुरोहित ने हमारे पिता की शर्त स्वीकार कर ली और वह हमें पढ़ाने लगा ।"
"हमारी माता पुरोहित के स्नान, पान भोजनादि की स्वयं व्यवस्था करती थी । कुछ ही समय में पुरोहित और हमारी माता एक दूसरे पर ग्रासक्त हो विषय-वासना के शिकार हो गये । हम दोनों भाइयों ने विद्या अध्ययन के लोभ में यह सब जानते हुए भी अपने पिता को उन दोनों के अनुचित सम्बन्ध के विषय में सूचना नहीं दी । निरन्तर अध्ययन कर हम दोनों भाई सब कलानों में निष्णात हो गये ।”
"अन्त में एक दिन हमारे पिता को पुरोहित और हमारी माता के पापाचरण का पता चल गया और उन्होंने पुरोहितजी को मार डालने का निश्चय कर लिया, पर हम दोनों ने अपने उस उपाध्याय को चुपके से वहाँ से भगा दिया । वह पुरोहित भाग कर हस्तिनापुर चला गया और वहाँ सनत्कुमार चक्रवर्ती का मंत्री बन गया ।"
"हम दोनों भाई वाराणसी के बाजारों, चौराहों और गलीकू चों में लयताल पर मधुर संगीत गाते हुए स्वेच्छापूर्वक घूमने लगे । हमारी सुमधुर स्वरलहरियों से पुर जन विशेषतः रमणियां आकृष्ट हो मन्त्रमुग्ध सी दौड़ी चली आतीं। यह देख वाराणसी के प्रमुख नागरिकों ने काशीनरेश से कह कर हम दोनों भाइयों का नगर प्रवेश निषिद्ध करवा दिया । हम दोनों भाइयों ने मन मसोस कर नगर में जाना बन्द कर दिया ।"
" एक दिन वाराणसी नगर में कौमुदी - महोत्सव था । सारा नगर हॅमीखुशी के मादक वातावरण में झूम उठा। हम दोनों भाई भी महोत्सव का आनन्द लूटने के लोभ का संवरण नहीं कर सके और लोगों की दृष्टि से छिपते हुए शहर में घुस पड़े तथा हम दोनों ने नगर में घुस कर महोत्सव के मनोरम दृश्य देखे ।"
" एक जगह संगीत - मण्डली का संगीत हो रहा था । हठात् हम दोनों भाइयों के कण्ठों से अज्ञात में ही स्वरलहरियां निकल पड़ीं। जिस-जिस के कर्णरन्धों में हमारी मधुर संगीत ध्वनि पहुँची वही मन्त्रमुग्ध सा हमारी ओर आकृष्ट हो दौड़ पड़ा । हम दोनों भाई तन्मय हो गा रहे थे । हमारे चारों ओर
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