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________________ ४६० ___ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ब्रह्मदत . हजारों नर-नारी एकत्रित हो गये और हमारा मनमोहक संगीत सुनने लगे। __"सहसा भीड़ में से किसी ने पुकार कर कहा-अरे ! ये तो वही चाण्डाल के छोकरे हैं, जिनका राजाज्ञा से नगर-प्रवेश निषिद्ध है।" "बस, फिर क्या था, हम दोनों भाइयों पर थप्पड़ों, लातों, मक्कों और भागने पर लाठियों व पत्थरों की वर्षा होने लगी। हम दोनों अपने प्राणों की रक्षा के लिए प्राण-प्रण से भाग रहे थे और नागरिकों की भीड़ हमारे पीछे भागती हई हम पर पत्थरों की इस तरह वर्षा कर रही थी मानों हम मानववेषधारी पागल कुत्ते हों।" ___ "हम दोनों नागरिकों द्वारा कूटते-पिटते शहर के बाहर आ गये। तब कहीं क्रुद्ध जनसमूह ने हमारा पीछा छोड़ा। फिर भी हम जंगल की ओर बेतहाशा भागे जा रहे थे । अन्त में हम एक निर्जन स्थान में रुके और यह सोचकर कि ऐसे तिरस्कृत पशुतुल्य जीवन से तो मर जाना अच्छा है, हम दोनों भाइयों ने पर्वत से गिर कर आत्महत्या करने का निश्चय कर लिया।" "आत्महत्या का दृढ़ निश्चय कर हम दोनों भाई एक विशाल पर्वत के उच्चतम शिखर की ओर चढ़ने लगे। पर्वत शिखर पर चढ़ कर हमने देखा कि एक मुनि शान्त मुद्रा में ध्यानस्थ खड़े हैं । मूनि के दर्शन करते ही हम दोनों ने शान्ति का अनुभव किया। हम मुनि के पास गये और उनके चरणों पर गिर पड़ें।" ___तपस्वी ने थोड़ी ही देर में ध्यान समाप्त होने पर आँखें खोली और हमें पूछा-"तुम कौन हो और इस गिरिशिखर पर किस प्रयोजन से पाये हो?" ____ "हमने अपना सारा वृत्तान्त यथावत् सुनाते हुए कहा कि इस जीवन से ऊबे हुए हम पर्वतशिखर से कूद कर आत्महत्या करने के लिये यहाँ आये हैं।" "इस पर करुणार्द्र मुनि ने कहा- "इस प्रकार आत्महत्या करने से तो तुम्हारे ये पार्थिव शरीर ही नष्ट होंगे। दुःखमय जीवन के मूल कारण जो तुम्हारे जन्मान्तरों के अजित कर्म हैं, वे तो ज्यों के त्यों विद्यमान रहेंगे। शरीर का त्याग ही करना चाहते हो तो सुरलोक और मुक्ति का सुख देने वाले तपश्चरण से अपने शरीर का पूरा लाभ उठा कर फिर शरीर-त्याग करो। तपस्या की प्राग में तुम्हारे पूर्व-संचित अशुभ कर्म तो जल कर भस्म होंगे ही, पर इसके साथ-साथ शुभ-कर्मों को भी तुम उपाजित कर सकोगे।" "मुनि का हितपूर्ण उपदेश हमें बड़ा ही यक्तिसंगत तथा रुचिकर लगा और हम दोनों भाइयों ने तत्क्षण उनके पास मुनि धर्म स्वीकार कर लिया। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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