SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 522
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ ब्रह्मदत्त लगा। ठंड से ठिठुरते हुए हम दोनों भाई खेत में ही एक विशाल वटवृक्ष के तने के पास बैठ गये । वर्षा थमने का नाम नहीं ले रही थी और चारों ओर जल ही जल दृष्टिगोचर हो रहा था । क्रमशः सूर्यास्त हुआ और चारों ओर घोर अन्धकार ने अपना एकछत्र साम्राज्य फैला दिया । दिन भर के कठिन श्रम से हमारा - रोमरोम दर्द कर रहा था, भूख बुरी तरह सता रही थी, उस पर शीतकालीन वर्षा की तीर-सी चुभने वाली शीत लहरों से ठिठुरे हुए हम दोनों भाइयों के दाँत बोलने लगे ।" " वटवृक्ष के कोटर में सो जाने की इच्छा से हमने अन्धेरे में इधर-उधर टटोलना प्रारम्भ किया तो भयंकर विषधर ने हम दोनों को डस लिया । हम दोनों भाई एक-दूसरे से सटे हुए कीट-पतंग की तरह कराल काल के ग्रास बन गये ।" " तदनन्तर हम दोनों कालिंजर पर्वत पर एक हरिणी के गर्भ से हरिण - युगल के रूप में उत्पन्न हुए । क्रमशः हम युवा हुए और दोनों भाई अपनी माँ के साथ वन में चौकड़ियाँ भरते हुए इधर से उधर विचरण करने लगे । एक दिन हम दोनों प्यास से व्याकुल हो वेत्रवती नदी के तट पर अपनी प्यास बुझाने गये । पानी में मुँह भी नहीं दे पाये थे कि हम दोनों को निशाना बनाकर एक शिकारी ने एक ही तीर से बींध दिया। कुछ क्षण छटपटाकर हम दोनों पञ्चत्व को प्राप्त हुए ।" । "उसके पश्चात् हम दोनों मयंग नदी के तट पर स्थित सरोवर में एक हंसिनी के उदर से हंस - युगल के रूप में उत्पन्न हुए और सरोवर में क्रीड़ा करते हुए हम युवा हुए। वहाँ पर भी एक पारधी ने हम दोनों को एक साथ जाल में फँसा लिया और गर्दन तोड़-मरोड़ कर हमें मार डाला ।" "हंसों की योनि के पश्चात् हम दोनों काशी जनपद के वाराणसी नगर के बड़े समृद्धिशाली भूतदिन्न नामक चाण्डाल की पत्नी अह्निका ( अरहिया ) के गर्भ से युगल सहोदर के रूप में उत्पन्न हुए । मेरा नाम चित्र और इन ( ब्रह्मदत्त) का नाम संभूत रखा गया । बड़े लाड़-प्यार से हम दोनों भाइयों का लालन-पालन किया गया । जिस समय हम ८ वर्ष के हुए, उस समय काशीपति अमितवाहन ने अपने नमूची' नामक पुरोहित को किसी अपराध के कारण मौत के घाट उतारने के लिए गुप्त रूप से हमारे पिता को सौंपा ।" १ चउवन महापुरिस चरियं में पुरोहित का नाम 'सच्च' दिया हुआ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only [ पृष्ठ २१५] www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy