SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 521
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चक्रवर्ती] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४५७ साम्राज्ञियों, सामन्तों आदि के लाखों मस्तक भी झुक गये । पूर्व के अपने पांचों भवों का भ्रातृस्नेह ब्रह्मदत्त के हृदय में हिलोरें लेने लगा। उसकी आँखों से अविरल अश्रुधाराएं बहने लगीं। पूर्व स्नेह को याद कर वह फूट-फूटकर रोने लगा। मुनि के अतिरिक्त सभी के विस्फारित नेत्र सजल हो गये । राजमहिषी पूष्पवती ने साश्चर्य ब्रह्मदत्त से पूछा-"प्राणनाथ ! चक्रवर्ती सम्राट होकर आज आप सामान्य जन की तरह करुण विलाप क्यों कर रहें हैं ?" ब्रह्मदत्त ने कहा-“महादेवि ! यह महामुनि मेरे भाई हैं।" पुष्पवती ने साश्चर्य प्रश्न किया-"यह किस तरह महाराज ?" ब्रह्मदत्त ने गद्गद स्वर में कहा-“यह तो मुनिवर के मुखारविन्द से ही सुनो।" साम्राज्ञियों के विनय भरे अनुरोध पर मुनि चित्त ने कहना प्रारम्भ किया-"इस संसार-चक्र में प्रत्येक प्राणी कुम्भकार के चक्र पर चढ़े हुए मृपिण्ड की तरह जन्म, जरा और मरण के अनवरत क्रम से अनेक प्रकार के रूप धारण करता हुआ अनादिकाल से परिभ्रमण कर रहा है । प्रत्येक प्राणी अन्य प्राणी से माता, पिता, पुत्र, सहोदर, पति, पत्नी आदि स्नेहपूर्ण सम्बन्धों से बंधकर अनन्त बार बिछुड़ चुका है ।" ___ "संक्षेप में यही कहना पर्याप्त होगा कि यह संसार वास्तव में संयोगवियोग, सुख-दुःख और हर्ष-विषाद का संगमस्थल है। स्वयं अपने ही बनाये हुए कर्मजाल में मकड़ी की तरह फँसा हा प्रत्येक प्राणी छटपटा रहा है । कर्मवश नट की तरह विविध रूप बनाकर भव-भ्रमण में भटकते हुए प्राणी के अन्य प्राणियों के साथ इन विनाशशील पिता, पुत्र, भाई आदि सम्बन्धों का कोई पारावार ही नहीं है।" ___ "हम दोनों भी पिछले पाँच भवों में सहोदर रहे हैं। पहले भव में श्रीदह ग्राम के शाण्डिल्यायन ब्राह्मण की जसमती नामक दासी के गर्भ से हम दोनों दास के रूप में उत्पन्न हुए। वह ब्राह्मण हम दोनों भाइयों से दिन भर कसकर श्रम करवाता । एक दिन उस ब्राह्मण ने कहा कि यदि कृषि की उपज अच्छी हुई तो वह हम दोनों का विवाह कर देगा। इस प्रलोभन से हम दोनों भाई और भी अधिक कठोर परिश्रम से बिना भूख-प्यास आदि की चिन्ता किये रात-दिन जी तोड़ कर काम करने लगे।" “एक दिन शीतकाल में हम दोनों भाई खेत में कार्य कर रहे थे कि अचानक आकाश काली मेघ-घटाओं से छा गया और मूसलाधार पानी बरसने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy