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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[ब्रह्मदत्त
दासा दसण्णए पासी, मिया कालिंजरे णगे । हंस मयंग तीराए, सोवागा कासिभुमिए । देवा य देवलोयम्मि, आसि अम्हे महिड्ढिया ।
आधे राज्य की प्राप्ति की आशा में प्रत्येक व्यक्ति ने इस समस्या-पति का पूरा प्रयास किया और यह डेढ़ गाथा जन-जन की जिह्वा पर मुखरित हो गई।
__ एक दिन चित्त नामक एक महान तपस्वी श्रमण ग्राम नगरादि में विचरण करते हुए काम्पिल्यनगर के मनोरम उद्यान में पाये और एकान्त में कायोत्सर्ग कर ध्यानावस्थित हो गये । अपने कार्य में व्यस्त उस उद्यान का माली उपर्युक्त तीन पंक्तियां बार-बार गुनगुनाने लगा। माली के कंठ से इस डेढ़ गाथा को सुन कर चित्त मुनि के मन में भी संकल्प-विकल्प व ऊहापोह उत्पन्न हुआ और उन्हें भी जातिस्मरण ज्ञान हो गया। वे भी अपने पूर्व-जन्म के पांच भवों को अच्छी तरह से देखने लगे । उन्होंने समस्या-पूर्ति करते हुए मालाकार को निम्नलिखित प्राधी गाथा कण्ठस्थ करवा दी :
इमा णो छट्ठिया जाई, अण्णमण्णेहिं जा विणा ।
माली ने इसे कंठस्थ कर खुशी-खुशी ब्रह्मदत्त के समक्ष जाकर समस्यापूर्ति कर दोनों गाथाएं पूरी सुना दी। सुनते ही राजा पुनः भूच्छित हो गया। यह देख ब्रह्मदत्त के अंगरक्षक यह समझकर कि इस माली के इन कठोर वचनों के कारण राजाधिराज मूच्छित हुए हैं, उस माली को पीटने लगे। राज्य पाने की आशा से आया हा माली ताड़ना पाकर स्तब्ध रह गया और बार-बार कहने लगा- "मैं निरपराध हूं, मैंने यह कविता नहीं बनाई है। मुझे तो उद्यान में ठहरे हुए एक मुनि ने सिखाई है।"
थोड़ी ही देर में शीतलोपचारों से ब्रह्मदत्त पुनः स्वस्थ हुआ । उसने राजपुरुषों को शान्त करते हुए माली से पूछा-"भाई ! क्या यह चौथा पद तुमने बनाया है ?"
माली ने कहा-"नहीं पृथ्वीनाथ ! यह रचना मेरी नहीं। उद्यान में आये हुए एक तपस्वी मुनि ने यह समस्या-पूर्ति की है।"
ब्रह्मदत्त ने प्रसन्न हो मुकुट के अतिरिक्त अपने सब आभूषण उद्यानपाल को पारितोषिक के रूप में दे दिये और अपने अन्तःपुर एवं पूर्ण ऐश्वर्य के साथ वह मनोरम उद्यान पहुंचा। चित्त मुनि को देखते हो ब्रह्मदत्त ने उनके चरणों पर मुकुट-मरिणयों से प्रकाशमान अपना मस्तक झुका दिया। उसके साथ ही
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