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भगवान् श्री मुनिसुव्रत
भगवान् मल्लिनाथ के बाद बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत हुए ।
पूर्वभव
पर- विदेह की चम्पा नगरी में राजा सुरश्रेष्ठ के भव में इन्होंने नन्दन मुनि की सेवा में संयम स्वीकार किया और अर्हत-भक्ति प्रादि बीस स्थानों की सम्यक् आराधना कर तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया । अन्त समय में समाधिपूर्वक काल कर दशवें प्रारणत देवलोक में देव हुए ।
जन्म
स्वर्ग की स्थिति पूर्ण कर यही सुरश्रेष्ठ का जीव श्रावण शुक्ला पूर्णिमा को श्रवण नक्षत्र में स्वर्ग से च्यव कर राजगृही के महाराज सुमित्र की महारानी देवी पद्मावती के गर्भ में बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत के रूप में उत्पन्न हुआ ।
माता ने मंगलप्रद चतुर्दश शुभ स्वप्न देखे और प्रशस्त दोहदों से प्रमोदपूर्वक गर्भकाल पूर्ण किया । ज्येष्ठ कृष्णा नवमी के दिन श्रवरण नक्षत्र में माता ने सुखपूर्वक पुत्र रत्न को जन्म दिया । इन्द्र, नरेन्द्र और पुरजनों ने भगवान् के जन्म का मंगल - महोत्सव मनाया ।
नामकररण
इनके गर्भ में रहते माता को विधिपूर्वक व्रत पालना की इच्छा बनी रही और वह सम्यक् रीति से मुनि की तरह व्रत पालना करती रही प्रत: महाराज सुमित्र ने बालक का नाम मुनिसुव्रत रखा ।
विवाह प्रौर राज्य
युवावस्था प्राप्त होने पर पिता सुमित्र ने प्रभावती आदि अनेक योग्य राजकन्याओं के साथ कुमार मुनिसुव्रत का विवाह किया और कालान्तर में उनको राज्य का भार सौंप कर स्वयं आत्म-कल्याण की इच्छा से वैराग्यभावपूर्वक दीक्षित हो गये ।
१ प्र० व्याकरण में ज्येष्ठ कृष्णा प है ।
२ गम्भगए मायापिया य सुव्वता जाता । ( प्राव. चू. उत्त. पृ. ११)
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