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सुभूम चक्रवर्ती
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परशुराम द्वारा फेंके गये परशु को अपने पैरों के नीचे भूमि पर पड़ा देख सुभूम ने अट्टहास किया और परशुराम के वध के लिये कृत-संकल्प हो उसने अपने सम्सुख रखे थाल को उठाया । सुभम के हाथ में जाते ही वह थाल अमोघ सहस्रार चक्र के समान तेज से जगमगा उठा। कोपाविष्ट सुभूम ने अपने शत्रु की ग्रीवा को लक्ष्य कर उस थाल को प्रबल वेग से घुमाते हुए परशुराम की ओर फेंका । उस थाल से कट कर परशुराम का मुण्ड ताल फल की तरह पृथ्वी पर लुढ़कने लगा।'
परशुराम के शिरोच्छेदन के उपरान्त भी सुभूम की क्रोधाग्नि शान्त नहीं हुई। उसने पुनः पुनः ब्राह्मणों का भीषण सामूहिक संहार कर पृथ्वी को २१ बार ब्राह्मण विहीन बना दिया।
सुभूम ने भरतक्षेत्र के छहों खण्डों पर अपनी विजय वैजयन्ती फहरा कर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। ६ निधियों और १४ रत्नों का स्वामी सुभूम सुदीर्घ काल तक षट्खण्डों के विशाल साम्राज्य का परिपालन एवं अनुपम ऐहिक भोगोपभोगों का सुखोपभोग करता रहा और अन्त में प्राय पूर्ण होने पर घोर नरक का अधिकारी बना।"
१ ताल फलं पिडव छिण्णं पडइ सिरं परसुरामस्स ॥४७॥
-चउप्पन्न महापुरिसरियं, पृ० १६७
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