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________________ सुभूम चक्रवर्ती २९७ परशुराम द्वारा फेंके गये परशु को अपने पैरों के नीचे भूमि पर पड़ा देख सुभूम ने अट्टहास किया और परशुराम के वध के लिये कृत-संकल्प हो उसने अपने सम्सुख रखे थाल को उठाया । सुभम के हाथ में जाते ही वह थाल अमोघ सहस्रार चक्र के समान तेज से जगमगा उठा। कोपाविष्ट सुभूम ने अपने शत्रु की ग्रीवा को लक्ष्य कर उस थाल को प्रबल वेग से घुमाते हुए परशुराम की ओर फेंका । उस थाल से कट कर परशुराम का मुण्ड ताल फल की तरह पृथ्वी पर लुढ़कने लगा।' परशुराम के शिरोच्छेदन के उपरान्त भी सुभूम की क्रोधाग्नि शान्त नहीं हुई। उसने पुनः पुनः ब्राह्मणों का भीषण सामूहिक संहार कर पृथ्वी को २१ बार ब्राह्मण विहीन बना दिया। सुभूम ने भरतक्षेत्र के छहों खण्डों पर अपनी विजय वैजयन्ती फहरा कर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। ६ निधियों और १४ रत्नों का स्वामी सुभूम सुदीर्घ काल तक षट्खण्डों के विशाल साम्राज्य का परिपालन एवं अनुपम ऐहिक भोगोपभोगों का सुखोपभोग करता रहा और अन्त में प्राय पूर्ण होने पर घोर नरक का अधिकारी बना।" १ ताल फलं पिडव छिण्णं पडइ सिरं परसुरामस्स ॥४७॥ -चउप्पन्न महापुरिसरियं, पृ० १६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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