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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
मैं क्षत्रिय कुमार हूं और तुम्हारा वध करने के लिये यहां आया हं। ऋषियों के आश्रम में मेरा लालन-पालन हुआ है इसीलिये आश्रमवासियों जैसा मेरा यह वेष है। सुभटों का शस्त्र नृसिंह के समान केवल उनकी भुजाएं ही होती हैं और कायर पुरुष यदि अपने हाथ में वज्र भी धारण किया हुआ हो तो भी वह निहत्था ही है। अतः तुम मुझे जो शस्त्रविहीन कह रहे हो, यह भ्रम मात्र है। मुझे बालक समझ उपेक्षा करने की भूल मत कर बैठना । उदयाचल पर नवोदित बाल-भान क्या दिग्दिगन्तव्यापी घनान्धकार को तत्काल ही विनष्ट नहीं कर देता? वैर का प्रतिषोध लेकर पितृऋण से उन्मुक्त होने के लिये मेरी भुजाएं फड़क रही हैं, मेरा अन्तःकरण आतुर हो रहा है । अतः शीघ्र ही शस्त्र उठा और अपना पौरुष दिखा । सावधान होकर सुन ले-जिन महान् योद्धा कार्तवीर्य सहस्रार्जन को तुमने रणांगण में मारा था, उन्हीं महाबलशाली महाराज कार्तवीर्य सहस्रार्जुन का मैं पुत्र हैं। पितवध का प्रतिषोध लेने के लिये तेरे सम्मुख उपस्थित हूँ। अब तो यदि तू पाताल में भी प्रविष्ट हो जाय तो भी निश्चित रूप से मैं तुझे पशु की मौत मारकर ही विश्राम लूगा । तूने सात बार पृथ्वी को निक्षत्रिया किया है अतः २१ बार पृथ्वी को निर्ब्राह्मण करने पर ही मेरी कोपाग्नि शान्त होगी, अन्यथा कदापि नहीं।""
सुभूम की इस प्रकार की ललकार सुनते ही परशुराम का रोम-रोम क्रोधाग्नि से प्रज्वलित हो उठा। उसने तत्काल अपने धनुष की प्रत्यञ्चा पर सरसमूह का संधान कर सुभूम पर सरवर्षा की झड़ी लगा दी। सुभूम ने उस थाल की ढाल से सब बाणों को निरर्थक कर पृथ्वी पर गिरा दिया। यह देख परशुराम आश्चर्याभिभूत एवं हतप्रभ हो गया। अनेक भीषण युद्धों में सदा विजयश्री दिलाने वाले अपने प्रचण्ड कोदण्ड और पैने बाणों को एक बालक के समक्ष मोघता को देखकर परशुराम झंझला उठे। धनुष बाण को एक पोर पटक उन्होंने अपना परशु सम्हाला । पर परशु को भी निष्प्रभ देख उन्हें बड़ी निराशा हुई । परशुराम के मुख से हठात् ये शब्द निकले-"अरे यह क्या हो गया, सहस्रों-सहस्रों क्षत्रियों का शिरोच्छेदन करने वाला यह घोर परशु प्राज प्रभाहीन कैसे प्रतीत हो रहा है ?" कतिपय क्षणों तक इसी प्रकार चिन्ताग्रस्त एवं विचारमग्न रहने के अनन्तर परशुराम ने सुभम के मस्तक को काट गिराने की अभिलाषा से उसकी ग्रीवा को लक्ष्य कर अपने प्रभाविहीन परशु को तीव्र वेग से सुभूम की ओर फेंका। कोपाकुल परशुराम द्वारा फेंका गया वह परशु सुभूम के परों के पास जा गिरा।
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१ तुहकयतिउरणेण महं पसमइ कोवाणलो नवरं ।।३।।
-चउप्पन्न महापरिसररियं, पृ० १६७ ॥
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