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पंचम आरक (दिगम्बर मान्यता) तिलोयपण्णत्ती के अनुसार एक-एक हजार वर्ष से एक-एक कल्वी और पांच-पांच सौ वर्षों से एक-एक उपकल्पी होता है। कल्की अपने-अपने शासनकाल में मुनियों से भी अग्रपिंड मांगते हैं । मुनिगण उस काल के कल्की को समझाने का पूरा प्रयास करते हैं कि अग्रपिंड देना उनके श्रमण-आचार के विपरीत और उनके लिये अकल्पनीय है, पर अन्ततोगत्वा कल्कियों के दुराग्रह के कारण उस समय के मुनि अग्रपिंड दे निराहार रह जाते हैं । उन मुनियों में से किसी एक मुनि को अवधिज्ञान हो जाता है । कल्की भी क्रमशः समय-समय पर असुर द्वारा मार दिये जाते हैं। प्रत्येक कल्की के समय में चातुर्वर्ण्य संघ भी बडी स्वल्प संख्या में रह जाता है ।
इस प्रकार धर्म, आयु, शारीरिक अवगाहना आदि की हीनता के साथ-साथ पंचम पारे की समाप्ति के कुछ पूर्व इक्कीसवां कल्की होगा । उसके समय में वीरांगज नामक मुनि, सर्वश्री नामक प्रायिका, अग्निदत्त (अग्निल) श्रावक और पंगुश्री श्राविका होंगे। कल्की अनेक जनपदों पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् अपने मंत्री से पूछेगा-"क्या मेरे राज्य में ऐसा भी कोई व्यक्ति है जो मेरे वश में नहीं है ?"
कल्की यह सुनते ही तत्काल अपने अधिकारियों को मुनि से अग्रपिण्ड लेने का आदेश देगा। वीरांगज मुनि राज्याधिकारियों को अग्रपिण्ड देकर स्थानक की मोर लौट पड़ेंगे। उन्हें उस समय अवधिज्ञान प्राप्त हो जायगा और वे अग्निल श्रावक, पंगुश्री श्राविका और सर्वश्री आर्यिका को बुलाकर कहेंगे - "प्रब दुष्षमकाल का अन्त पा चुका है । तुम्हारी और मेरी अब केवल तीन दिन की प्रायु शेष है। इस समय जो यह राजा है, यह अन्तिम कल्की है । अतः प्रसन्नतापूर्वक हमें चतुर्विध आहार और परिग्रह आदि का त्याग कर माजीवन संन्यास ग्रहण कर लेना चाहिये ।"
वे चारों तत्काल माहार, परिग्रह प्रादि का त्याग कर संन्यास सहित कार्तिक कृष्णा, अमावस्या को स्वाति नक्षत्र में समाधि-मरण को प्राप्त होंगे और सौधर्म कल्प में देवरूप से उत्पन्न होंगे। उसी दिन मध्याह्न में कुपित हुए असुर द्वारा कल्की मार दिया जायगा और सूर्यास्तवेला में भरत क्षेत्र से उसकी सत्ता विलुप्त हो जायगी । कल्की नरक में उत्पन्न होगा। उस दिवस के ठीक तीन वर्ष और साढ़े आठ मास पश्चात् महाविषम दुष्षमादुष्षम नामक छठा प्रारक प्रारम्भ होगा।
[तिलोयपण्णत्ती, ४१५१६-१५३५]
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