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तेरहवें मनु 'प्रसेनजित' के समय में जरायु से वेष्टित युगल बालकों के जन्म से उस समय के मानव बड़े भयभीत हुए । 'प्रसेनजित' ने जरायु हटाने और बालकों का समुचित रूप से पालन करनेकी उन लोगों को शिक्षा दी ।
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चौदहवें मनु 'नाभिराय' के समय में बालकों का नाभि नाल बहुत लम्बा होता था । उन्होंने लोगों को उसके काटने की शिक्षा दी। इनके समय में कल्पवृक्ष नष्ट हो गये प्रौर सहज ही उत्पन्न विविध प्रौषधियां, धान्यादिक और मीठे फल दृष्टिगोचर होने लगे । नाभिराय ने भूखे व भयाकुल लोगों को स्वतः उत्पन्न शालि, जौ, वल्ल, तुबर, तिल और उड़द प्रादि के भक्षण से क्षुधा की ज्वाला शान्त करने की शिक्षा दी ।
[तिलोयपण्णत्ती, महाधिकार ४, गा० ४२१- ५०६, पृ० १६७ - २०६]
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