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________________ थावच्चापुत्र] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४२५ थावच्चापुत्र ने अनेक वर्षों की कठोर संयम-साधना, धर्म-प्रसार और अनेक प्राणियों का कल्याण कर अन्त में पुण्डरीक पर्वत पर आकर एक मास की संलेखना को और केवलज्ञान प्राप्त कर निर्वाण-पद प्राप्त किया। थावच्चापुत्र के शिष्य शुक और प्रशिष्य शैलक राजर्षि ने भी कालान्तर में पुण्डरीक पर्वत पर एक मास की संलेखना कर निर्वाण प्राप्त किया। शैलक राजषि कठोर तपस्या और अन्तप्रान्त अननुकूल आहार के कारण भयंकर व्याधियों से पीड़ित हो गये थे। यद्यपि वे रोगोपचार के समय प्रमादी और शिथिलाचारी हो गये थे । पर कुछ ही समय पश्चात् अपने शिष्य पंथक के प्रयास से सम्हल गये और अपने शिथिलाचार का प्रायश्चित्त कर तप-संयम की कठोर साधना द्वारा स्वपर-कल्याण-साधन में लग गये । जैसा कि ऊपर वर्णन किया जा चुका है, वे अन्त में पाठों कर्मों का क्षय कर निर्वाण को प्राप्त हए। इस प्रकार थावच्चामनि आदि इन पच्चीस सौ (२५००) श्रमणों ने अरिहंत अरिष्टनेमि के शासन की शोभा बढ़ाते हुए अपनी आत्मा का कल्याण किया। अरिष्टनेमि का द्वारिका-विहार और भव्यों का उद्धार भगवान नेमिनाथ अप्रतिबद्ध विहारी थे। वीतरागी व केवली होकर भी वे एक स्थान पर स्थिर नहीं रहे । उन्होंने दूर-दूर तक विहार किया। सौराष्ट की भूमि उनके विहार, विचार और प्रचार से आज भी पूर्ण प्रभावित है। यद्यपि उनके वर्षावास का निश्चित पता नहीं चलता, फिर भी इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उनका विहार-क्षेत्र अधिकांशतः द्वारिका रहा है। वासूदेव कृष्ण की भक्ति और पुरवासी जनों की श्रद्धा से द्वारिका उस समय का धार्मिक केन्द्र सा प्रतीत होता है। भगवान् नेमिनाथ का बार-बार द्वारिका पधारना भी इसका प्रमाण है। ___एक समय की बात है कि जब भगवान् द्वारिका के नन्दन वन में विराजे हए थे, उस समय अन्धकवष्णि के समुद्र, सागर, गंभीर, स्तिमित, अचल. कम्पित, अक्षोभ, प्रसेन और विष्णू आदि दश पुत्रों ने राज्य वैभव छोड़कर प्रभ के चरणों में प्रव्रज्या ग्रहण की । दूसरी बार हिमवंत, अचल, धरण, पूरण आदि वष्णि-पूत्रों के भी इसी भाँति प्रवजित होने का उल्लेख मिलता है। तीसरी बार प्रभु के पधारने पर वसुदेव और धारिणी के पुत्र सारण कुमार ने दीक्षा ग्रहण की। सारणकुमार की पचास पत्नियां थीं, पर प्रभ की वाणी से विरक्त होकर उन्होंने सब भोगों को ठकरा दिया। बलदेव पुत्र सुमुख, दुर्मुख, कृपक और वसुदेव पुत्र दारुक एवं अनाधृष्टि की प्रव्रज्या भी द्वारिका में ही हुई प्रतीत होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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