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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[पाण्डवों का
है। फिर वसुदेव और धारिणी के पुत्र जालि, मयालि, उपयालि, पुरुषसेन, वारिषेण तथा कृष्ण के नन्दन प्रद्युम्न एवं जाम्बवती के पुत्र साम्बकुमार, वैदर्भीकुमार अनिरुद्ध तथा समुद्रविजय के सत्यनेमि, दृढ़नेमि ने तथा कृष्ण की अन्य रानियों ने भी द्वारिका में ही दीक्षा ग्रहण की थी। रानियों के अतिरिक्त मूलश्री और मूलदत्ता नाम की दो पुत्रवधुओं की दीक्षा भी द्वारिका में ही हुई थी। इन सबसे ज्ञात होता है कि कृष्ण वासुदेव के परिवार के सभी लोग भगवान् अरिष्टनेमि के प्रति अटूट श्रद्धा रखते थे ।
पाण्डवों का वैराग्य और मुक्ति । श्रीकृष्ण के अन्तिम आदेश का पालन करते हुए जब जराकुमार पाण्डवों के पास पाण्डव-मथुरा' में पहुँचा तो उसने श्रीकृष्ण द्वारा प्रदत्त कौस्तुभ मणि पाण्डवों को दिखाई और रोते-रोते द्वारिकादाह, यदुवंश के सर्वनाश और अपने द्वारा हरिण की आशंका से चलाये गये बाण के प्रहार से श्रीकृष्ण के निधन आदि की सारी दुःखद घटनाओं का विवरण उन्हें कह सुनाया।
जराकुमार के मुख से हृदयविदारक शोक-समाचार सुन कर पाँचों पाण्डव और द्रौपदी आदि शोकाकुल हो विलख-विलख कर रोने लगे। अपने परम सहायक और अनन्य उपकारक श्रीकृष्ण के निधन से तो उन्हें वज्रप्रहार से भी अधिक प्राघात पहुँचा । उन्हें सारा विश्व शून्य सा लगने लगा। उन्हें संसार के जंजाल भरे क्रिया-कलापों से सर्वथा विरक्ति हो गई।
घट-घट के मन की बात जानने वाले अन्तर्यामी प्रभु अरिष्टनेमि ने पाण्डवों की संयम-साधना की आन्तरिक इच्छा को जान कर तत्काल अपने चरमशरीरी चार ज्ञान के धारक स्थविर मुनि धर्मघोष को ५०० मुनियों के साथ पाण्डवमथुरा भेजा । पाण्डवमथुरा में ज्योंही स्थविर धर्मघोष के प्राने का समाचार पाण्डवों ने सुना तो वे सपरिवार मुनि को वन्दन करने गये और उनके उपदेश से आत्मशुद्धि को ही सारभूत समझ कर युधिष्ठिर आदि पांचों भाइयों ने अपने पुत्र पाण्डुसेन को पाण्डव-मथुरा का राज्य दे धर्मघोष के पास श्रमरणदीक्षा स्वीकार की। १ ........केणइ कालंतरेण संपत्तो दाहिण महुरं । [च. म. पु. च., पृ. २०५] २ तान् प्रविजिषूज्ञात्वा, श्रीनेमिः प्राहिणोन्मुनिम् । धर्मघोपं चतुर्ज्ञानं, मुनिपञ्चशतीयुतम् ।।२।।
[त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व ८, सर्ग १२] १ (क) ज्ञाता धर्म कथा में पाण्डुसेन को ही राज्य देने का उल्लेख है । (ख) जारेयं न्यस्य ते राज्ये "।
__ [त्रिषष्टि श. पु. च., ८।१२, श्लोक ६३] (ग) ........"सयलसामन्ताणं समत्त्थिऊरण णिवेसियो नियय रज्जे जराकुमारो।
- [च. म. पु. च., पृष्ठ २०५]
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