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४२४ __ जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[महामुनि किन्तु सुदर्शन से पूर्व की तरह अपेक्षित वन्दन, सत्कार, सम्मान न पाकर शुक ने उससे उस उदासीनता और उपेक्षा का कारण पूछा।
सुदर्शन ने खड़े हो हाथ जोड़कर उत्तर दिया--"विद्वन् ! मैंने अणगार थावच्चापुत्र से जीवाजीवादि तत्त्वों का वास्तविक स्वरूप समझ कर विनयमूलक धर्म स्वीकार कर लिया है।"
परिव्राजकाचार्य शुक ने सुदर्शन से पूछा--- "तेरे वे धर्माचार्य कहाँ हैं ?"
सुदर्शन ने उत्तर दिया-“वे नगर के बाहर नीलाशोक उद्यान में विराजमान हैं।"
शुक ने कहा-“मैं अभी तुम्हारे धर्म-गुरु के पास जाता हूँ और उनसे सैद्धान्तिक, तात्त्विक, धर्म सम्बन्धी और व्याकरण विषयक जटिल प्रश्न पूछता हूँ। अगर उन्होंने मेरे सब प्रश्नों का संतोषप्रद उत्तर दिया तो मैं उनको नमस्कार करूंगा अन्यथा उन्हें अकाट्य युक्तियों और नय-प्रमाण से निरुत्तर कर दूंगा।"
यह कह कर परिवाडराज शूक अपने एक हजार परिव्राजकों और सुदर्शन सेठ के साथ नीलाशोक उद्यान में अनगार थावच्चापुत्र के पास पहुंचे। उसने उनके समक्ष अनेक जटिल प्रश्न रखे ।
अणगार थावच्चापुत्र ने उसके प्रत्येक प्रश्न का प्रमाण, नय एवं यक्तिपूर्ण ढंग से हृदयग्राही स्पष्ट उत्तर दिया। शुक को उन उत्तरों से पूर्ण संतोष के साथ वास्तविक बोध हुआ। उसने थावच्चापुत्र से प्रार्थना की कि वे उसे धर्मोपदेश दें।
अरणगार थावच्चापुत्र से हृदयस्पर्शी धर्मोपदेश सुन कर शुक ने धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझा और तत्काल अपने एक हजार परिव्राजकों के साथ पंचमष्टि-लुचन कर उनके पास श्रमण-दीक्षा स्वीकार की तथा अरागार थावच्चापुत्र के पास चौदह पूर्व एवं एकादश अंगों का अध्ययन कर स्वल्प समय में ही आत्मविद्या का वह पारगामी बन गया । थावच्चापुत्र ने शुक को सब तरह से योग्य समझ कर आज्ञा दी कि वह अपने एक हजार शिष्यों के साथ भारतवर्ष के सन्निकट त सुदूर प्रदेशों में विचरण कर भव्य प्राणियों को धर्म-मार्ग पर आरूढ करे।
अपने गुरु थावच्चापुत्र की आज्ञा शिरोधार्य कर महामनि शुक ने अपने एक हजार प्रणगारों के साथ अनेक प्रदेशों में धर्म का प्रचार किया। थावच्चापूत्र के श्रमणोपासक शैलकपुर के महाराजा शैलक ने भी शक के उपदेश से प्रभावित हो पंथक आदि अपने पांच सौ मन्त्रियों के साथ श्रमण-दीक्षा स्वीकार
की।
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