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वचन या बलात् ]
भगवान् महावीर
यह अतिथि और कोई नहीं, श्रमण भगवान् महावीर ही थे । तत्क्षण "महा दानं, महा दानं" के दिव्य घोष और देव दुन्दुभियों के निश्वन से गगन गूंज उठा । गन्धोदक, पुष्प और दिव्य वस्त्रों की आकाश से देवगरण वर्षा करने लगे । चन्दना के दान की महिमा करते हुए देवों ने धनावह सेठ के घर पर १२ ।। करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा की । सुगन्धित - मन्द-मधुर मलयानिल से सारा वातावरण सुरभित हो उठा। यह अद्भुत दृश्य देखकर कौशाम्बी के सहस्रों नर-नारी वहाँ एकत्रित हो गये और चन्दना के भाग्य की सराहना करने लगे ।
उस महान् दान के प्रभाव से तत्क्षरण चन्दना के मुण्डित शीश पर पूर्ववत् लम्बी सुन्दर. केशराशि पुनः उद्भूत हो गई । चन्दना के पैरों में पड़ी लोहे की बेड़ियां सोने के नूपुरों में और हाथों की हथकड़ियां करकंकरणों के रूप में परिरगत हो गईं। देवियों ने उसे दिव्य आभूषणों से अलंकृत किया । सूर्य के समान चमचमाती हुई मरिणयों से जड़े मुकुट को धारण किये हुए स्वयं देवेन्द्र वहाँ उपस्थित हुए और उन्होंने भगवान् को वन्दन करने के पश्चात् चन्दना का अभिवादन किया ।
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कौशाम्बीपति शतानीक भी महारानी मृगावती एवं पुरजन-परिजन प्रादि के साथ धनावह के घर आ पहुँचे । उनके साथ बन्दी के रूप में प्राये हुए दधिवाहन के अंगरक्षक ने चन्दना को देखते ही पहचान लिया और वह चन्दना के पैरों पर गिर कर रोने लगा । जब शतानीक और मृगावती को उस अंगरक्षक के द्वारा यह विदित हुना कि चन्दना महाराजा दधिवाहन की पुत्री है तो मृगावती ने अपनी भानजी को अंक में भर लिया ।
चन्दना की इच्छानुसार धनावह उन १२|| करोड़ स्वर्ण मुद्राओंों का स्वामी बना । '
इन्द्र ने शतानीक से कहा कि यह चन्दनबाला भगवान् को केवलज्ञान होने पर उनकी पट्ट शिष्या बनेगी और इसी शरीर से निर्वाण प्राप्त करेगी, अतः इसकी बड़ी सावधानी से सार-संभाल की जाय । यह भोगों से नितान्त विरक्त है इसलिये इसका विवाह करने का प्रयास नहीं किया जाय । तत्पश्चात् देवेन्द्र एवं देवगरण अपने-अपने स्थान की ओर लौट गये और महाराजा शतानीक, महारानी मृगावती व चन्दनबाला के साथ राजमहलों में लौट आये ।
चन्दनबाला राजप्रासादों में रहते हुए भी साध्वी के समान विरक्त जीवन व्यतीत करने लगी । आठों प्रहर यही लगन उसे लगी रहती कि वह दिन शीघ्र प्राये जब भगवान् महावीर को केवलज्ञान प्राप्त हो और वह उनके पास दीक्षित
१ चउवन महापुरिस चरियं
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