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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास भगवान् पार्श्वनाथ और होकर संसार सागर को पार करने के लिये तप-संयम की पूर्ण साधना में तत्परता से लग जावे। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है भगवान् को केवलज्ञान होने पर चन्दनबाला ने प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण की और भगवान् के श्रमणी संघ का समीचीन रूप से संचालन करते हुए अनेक प्रकार को कठोर तपश्चर्याओं से अपने समस्त कों को क्षय कर निर्वाण प्राप्त किया। भगवान् पार्श्वनाथ और महावीर का शासन-भेद प्रागैतिहासिक काल में भगवान् ऋषभदेव ने पांच महाव्रतों का उपदेश दिया और उनके पश्चाद्वर्ती अजितनाथ से पार्श्वनाथ तक के बाईस तीर्थंकरों ने चातुर्याम रूप धर्म की शिक्षा दी । उन्होंने अहिंसा, सत्य, अचौर्य और बहिस्तात्आदान-विरमण अर्थात् बिना दी हुई बाह्य वस्तुओं के ग्रहण का त्याग रूप चार याम वाला धर्म बतलाया। पार्श्वनाथ के बाद जब महावीर का धर्मयग पाया तो उन्होंने फिर पांच महाव्रतों का उपदेश दिया। पांच महाव्रत इस प्रकार हैं:-अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । इस तरह दोनों के व्रत-विधान में संख्या का अन्तर होने से यह प्रश्न सहज ही उठता है कि ऐसा क्यों ? यही प्रश्न केशिकुमार ने गौतम से भी किया था। इसका उत्तर देते हुए गौतम ने बतलाया कि स्वभाव से प्रथम तीर्थंकर के साधु, ऋजु और जड़ होते हैं, अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्र एवं-जड़ तथा मध्यवर्ती तीर्थंकरों के साधु ऋजु और प्राज्ञ होते हैं। इस कारण प्रथम तीर्थंकर के साधुनों के लिये जहाँ मुनि-धर्म के प्राचार का यथावत् ज्ञान करना कठिन होता है वहां चरम तीर्थकर के शासनवर्ती साधुओं के लिये मुनि-धर्म का यथावत् पालन करना कठिन होता है। पर मध्यवर्ती तीर्थंकरों के शासनवर्ती साधु व्रतों को यथावत् ग्रहण और णम्यक रीत्या पालन भी कर लेते हैं। इसी आधार पर इन तीर्थंकरों के शासन व्रत-निर्धारण में संख्या-भेद पाया जाता है । भरत ऐरावत क्षेत्र में प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर को छोड़ कर मध्य के बाईस परिहन्त भगवान् चातुर्याम-धर्म का प्रज्ञापन करते हैं । यथा : सर्वथा प्राणातिपात विरमण, सर्वथा मृषावाद विरमण, सर्वथा प्रदत्तादान विरमण र सर्वथा बहिदादान विरमण । [स्था०, स्था० ४, उ० १, सूत्र २६६, पत्र २०१ (१)] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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