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प्रथम चक्रवर्ती भरत
प्रवर्तमान अवसर्पिणीकाल में जम्बूद्वीपस्थ भरतक्षेत्र के छः खण्डों के प्रथम सार्वभौम चक्रवर्ती सम्राट भरत हुए। वे भरतक्षेत्र के प्रथम राजा और प्रथम तीर्थकर भ० ऋषभदेव के सौ पुत्रों में सबसे बड़े थे। पहले बताया जा चुका है कि उनकी माता का नाम सुमंगला था और जिस समय भ० ऋषभदेव की अवस्था ६ लाख पूर्व की हुई, उस समय उनकी बड़ी पत्नी सुमंगला की कुक्षि से भरत और ब्राह्मी का युगल रूप में जन्म हुआ । जब भरत गर्भ में आये, उस. समय देवी सुमंगला ने भी तीर्थंकरों की माताओं के समान चौदह महास्वप्न देखे । उस समय तीन ज्ञान के धारक ऋषभकुमार ने सुमंगला की स्वप्नफल जिज्ञासा को शान्त करते हुए कहा था-"देवि! तुम्हारे गर्भ में एक ऐसा महाभाग्यशाली चरमशरीरी प्राणी पाया है, जो इस भरतक्षेत्र के छ खण्डों का अधिपति प्रथम चक्रवर्ती होगा और अन्त में जन्म, जरा, मुत्यु आदि सभी प्रकार के सांसारिक दुःखों के बीजभूत आठों कर्मों को मूलतः नष्ट कर शाश्वत शिवपद का अधिकारी होगा।" तदनुसार समय पर चक्रवर्ती पुत्ररत्न और सर्वांग-सुन्दरी पुत्री को प्राप्त कर सुमंगला के हर्ष का पारावार नहीं रहा। कुछ ही समय पश्चात् राजकुमार ऋषभ की द्वितीया धर्मपत्नी सुनन्दा ने बाहुबली और सुन्दरी को युगल रूप में तथा कालान्तर में देवी सुमंगला ने अनुक्रमश : ४६ पुत्रयुगलों के रूप में ९८ और पुत्ररत्नों को ४६ वार में जन्म दिया।
संवर्द्धन और शिक्षा सन्तानोत्पत्ति के उपलक्ष्य में सर्वत्र हर्षोल्लास का वातावरण छा गया। नगर के नर-नारी असीम अानन्द का अनुभव करते हुए झूम उठे । सभी शिशुओं का बड़े लाड़-प्यार एवं दुलार के साथ लालन-पालन किया जाने लगा। अनुक्रमशः वृद्धिगत होते हुए भरत प्रादि जब शिक्षा योग्य वय में प्रविष्ट हए तो स्वयं राजकुमार ऋषभदेव ने अपने पुत्रों एवं पुत्रियों को विद्याओं एवं कलाओं की शिक्षा देना प्रारम्भ किया। जगद्गुरु भ० ऋषभदेव को शिक्षागुरु के रूप में पा भरत प्रादि उन १०२ चरमशरीरियों ने अपने आपको धन्य समझा। उन्होंने अपने पिता तथा गुरु भगवान् ऋषभदेव के चरणों में बैठकर बड़ी निष्टा और परिश्रम के साथ अध्ययन किया ।
वे सभी कुशाग्रबुद्धि कुमार समस्त विद्यानों एवं पुरुषोचित बहत्तर (७२) कलानों में पारंगत हुए । ब्राह्मी और सुन्दरी ने भी लिपियों के ज्ञान और गणित प्रादि अनेक विषयों के साथ-साथ महिलाओं की ६४ कलानों पर पूर्णरूपेण आधिपत्य प्राप्त किया।
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