________________
[ संवर्द्धन और शिक्षा ]
प्रथम चक्रवर्ती भरत
इस प्रकार इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम विद्याओं एवं कला के प्रशिक्षरण का आदान-प्रदान भरत क्षेत्र में प्रारम्भ हुआ । इस अवसर्पिर्णी काल के प्रथम शिक्षक जगद्गुरु भ० ऋषभदेव और प्रथम शिक्षार्थी भरत आदि हुए ।
जिस समय भरत की ग्रायु चौदह लाख पूर्व की हुई, उस समय उनके पिता भगवान् ऋषभदेव का राज्याभिषेक हुआ । त्रेसठ लाख पूर्व जैसी सुदीर्घा - वधि तक अपनी प्रजा की न्याय एवं नीतिपूर्वक परिपालना करते हुए राजोपभोग्य विविध भोगोपभोगों का अपने भोगावलि कर्म के अनुसार अनासक्त भाव से उपभोग करने के पश्चात् भ० ऋषभदेव अपने पुत्र भरत को विनीता के और बाहुबलि आदि ६६ पुत्रों को प्रन्यान्य राज्यों के राजसिंहासनों पर अभिषिक्त कर प्रव्रजित हो सकल सावद्य के त्यागी बन गये ।
७७
जिस समय विनीता के राजसिंहासन पर भरत का राज्याभिषेक किया गया, उस समय उनकी आयु सतहत्तर लाख पूर्व की हो चुकी थी । वे न्याय और नीति पूर्वक प्रजा का पालन करने लगे । समचतुरस्र संस्थान एवं वज्रऋषभनाराच संहनन के धनो भरत इन्द्र के समान तेजस्वी, प्रियदर्शी, मृदुभाषी, महान् पराक्रमी और साहसी थे । वे शंख, चक्र, गदा, पद्म, छत्र, चामर, इन्द्रध्वज, नन्द्यावर्त, मत्स्य, कच्छप, स्वस्तिक, शशि, सूर्य आदि १००८ उत्तमोत्तम लक्षणों से सम्पन्न थे । वे बड़े ही उदार, दयालु, प्रजावत्सल एवं प्रजेय थे । अनुपम उत्तम गुणों के धारक महाराजा भरत की कीर्तिपताका दिग्दिगन्त में फहराने लगी ।
I
इस प्रकार माण्डलिक राजा के रूप में विपुल वैभव तथा ऐश्वर्य का सुखोपभोग तथा प्रजा का पालन करते हुए महाराजा भरत का जीवन आनन्द के साथ व्यतीत होने लगा। महाराज भरत के, विनीता के राजसिंहासन पर आसीन होने के १००० वर्ष पश्चात् एक दिन उनके प्रबल पुण्योदय से उनकी आयुधशाला में दिव्य चक्ररत्न उत्पन्न हुआ । महान् प्रभावशाली, तेजपुंज चक्ररत्न को देखते ही प्रायुधशाला का रक्षक हर्षविभोर हो गया । हर्षातिरेक से उसका अंग-प्रत्यंग एवं रोम-रोम पुलकित हो उठः । उसका मन परम प्रमुदित हो भुवनभास्कर - भानु के करस्पर्श से खिले सौलह पंखुड़ियों वाले कमल के समान प्रफुल्लित हो गया । अभूतपूर्व उत्कृष्ट प्रानन्द का अनुभव करता हुआ, हृष्ट-पुष्ट वह आयुधशाला का रक्षक चक्ररत्न के समीप गया । उसने चक्ररत्न की तीन बार प्रदक्षिणा प्रदक्षिणा कर सांजलि शीर्ष भुका उसे सादर प्रणाम किया । तदनन्तर वह त्वरित गति से उपस्थान- शाला में महाराज भरत की सेवा में उपस्थित हुआ । " राजराजेश्वर आपकी सदा जय हो, विजय हो" -- इन जयघोषों के गम्भीर घोष के साथ महाराज भरत को वर्द्धापित करते हुए आयुधशाला के रक्षक ने अपने भाल पर करबद्ध ग्रंजलिपुट रखते हुए उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org