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________________ ७८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्दन बोला- "हे देवानुप्रिय बधाई है, बधाई है, अभूतपूर्व बहुत बड़ी बधाई है । देव ! आपकी प्रायुधशाला में दिव्य चक्ररत्न उत्पन्न हुना है। हे देवानप्रिय ! प्रापके हृदय मन, मस्तिष्क और कर्णयुगल को परम प्रमोद प्रदान करने वाले इस परमप्रीतिकर शुभ संवाद को सुनाने के लिये ही मैं आपकी सेना निकाल समुपस्थित हुअा हूं। यह शुभ समाचार आपके लिये परम प्रियंकर हो ।' आयुधागार के संरक्षक के मुख से इस प्रकार का सुखद समाचार सुनकर महाराजा भरत को इतना हर्ष और संतोष हुआ कि उनके फुल्लारविन्द द्वय तुल्य पायत नेत्र-युगल विस्फारित हो उठे, मुख कमल खिल गया। वे सहसा अपने राजसिंहासन से घनघटा में चपला की चमक के समान शीघ्रतापूर्वक इस प्रकार उठे कि उनके करकंकण, केयूर, कुण्डल, मुकूट, शैलेन्द्र की शिला के समान विशाल वक्षस्थल को सुशोभित करने वाले प्रलम्ब हार दोलायमान हो झूम उठे। महाराज भरत सिंहासन से उठ कर पादपीठ से नीचे उतरे। उन्होंने चरणपादुकानों को उतार कर दुपट्टे का उत्तरासंग किया। वे करबद्ध हो अंजलि को अपने भाल से लगा चक्ररत्न को ओर मुख किये सात-पाठ डग आगे की ओर चले। तदनन्तर उन्होंने अपने वाम घुटने को खड़ा रखते हुए प्रौर दक्षिण जान को भूका धरती पर रखते हुए दोनों हाथ जोड़ कर चक्ररत्न को प्रणाम किया। प्रणामानन्तर उन्होंने मुकुट के अतिरिक्त अपने शेष प्राभूषण प्रायुधशाला के रक्षक को प्रीतिदान अर्थात् पारितोषिक के रूप में प्रदान कर दिये। इस पारितोषिक के अतिरिक्त उन्होंने उसे और भी विपुल और स्थायी प्राजीविका प्रदान की। इस प्रकार महाराज भरत ने आयुधागार के अधिकारी को पूर्णरूपेण संतुष्ट कर उसे विदा किया और पुनः वे अपने राजसिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठ गये। तदनन्तर उन्होंने अपने प्राज्ञाकारी अधिकारियों को प्रादेश दिया कि वे विनीता नगरी के बाह्याभ्यन्तर समस्त मार्गों को झाड़-बुहार-स्वच्छ बना सर्वत्र गन्धोदक का छिड़काव करें। राजमार्ग, वीथियों, चौराहों आदि में विशाल एवं नयनाभिराम मंचों का निर्माण करवा उन पर गगन में फहराती हई पताकाएं लगायें। उन अधिकारियों ने अपने स्वामी की आज्ञा को शिरोधार्य कर तत्काल नगर के सभी भागों को स्वच्छ, सुन्दर, सुशोभित एवं सुसज्जित बनाने का कार्य द्रुतगति से प्रारम्भ कर दिया। अभ्यंग मर्दन, स्नान, मज्जन, विलेपन के मनन्तर महाऱ्या वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो राज्य के सभी उच्चाधिकारियों, गणनायकों, दण्डनायकों, परिजनों. एवं मंगलकलश ली हुई विभिन्न देशों की दासियों से घिरे हुए महाराज भरत प्रायुधशाला की अोर प्रस्थित हुए। प्रति कमनीय विशाल छत्र से सुशोभित महाराज भरत के चारों ओर चामरपीजे जा रहे थे। हजारों कण्ठों से उद्घोषित जयविजय के घोषों से गगनमण्डल गजरित हो रहा था। उनके अनेक अधिकारी भांति-भांति के सुगन्धित एवं सुमनोहर पुष्प हाथों में लिये चल रहे थे। उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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