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________________ ५२२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० पार्श्वनाथ की साध्वियां की। किन्तु शरीरबाकुशिका हो जाने के कारण इन्होंने संयम के उत्तर गुणों की विराधना की और अन्त समय में बिना संयम के अतिचारों की आलोचना किये संलेखनापूर्वक काल धर्म को प्राप्त हो ये दक्षिणेन्द्रों की अग्रमहिषियां बनीं। षष्ट वर्ग में निरूपित व्यन्तर जाति के महाकाल आदि ३२ उत्तरेन्द्रों की देवियां अपने पूर्वभव में साकेतपुर के अपने समान नाम वाले गाथापति दम्पतियों की पुत्रियाँ थीं। इन्होंने भी भगवान पार्श्वनाथ के उपदेशों से विरक्त हो आर्या सुव्रता के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। अनेक वर्षों तक इन सबने संयम एवं तप की साधना की, किन्तु संयम के उत्तर गुणों की विराधिकाएं होने के कारण बिना पालोचना किये ही संलेखनापूर्वक आयुष्य पूर्ण कर महाकाल आदि ३२ उत्तरेन्द्रों की अग्रमहिषियां बनीं। सप्तम वर्ग में उल्लिखित सूरप्रभा, पातपा, अचिमाली और प्रभंकरा नाम की सूर्य की ४ अग्रमहिषियां अपने पूर्वभव से अरक्खुरी नगरी के अपने समान नाम वाले गाथापति दम्पतियों की पुत्रियाँ थीं । __ अष्टम वर्ग में वणित चन्द्रप्रभा, ज्योत्स्नाभा, अचिमाली और प्रभंगा नाम की चन्द्र की चार अग्रमहिषियां अपने पूर्वभव में मथुरा के अपने समान नाम वाले गाथापति दम्पतियों को पुत्रियां थीं। नवम वर्ग में वर्णित पद्मा, शिवा, सती, अंजु, रोहिणी, नवमिया, अचला और अच्छरा नाम की सौधर्मेन्द्र की ८ अग्रमहिषियों के पूर्वभव बताते हुए प्रभु महावीर ने फरमाया कि पद्मा और शिवा श्रावस्ती नगरी के, सती और प्रजु हस्तिनापुर के, रोहिणी और नवमिया कम्पिलपुर के तथा अचला और अच्छरा साकेतपुर के अपने समान नाम वाले गाथापतियों की पुत्रियां थीं। ___ दशम वर्ग से वणित ईशानेन्द्र की कृष्णा तथा कृष्णराजि अग्रमहिषियाँ वाराणसी, रामा और रामरक्खिया राजगृह नगर, वसु एवं वसुदत्ता श्रावस्ती नगरी, तथा वसुमित्रा और वसुधरा नाम को अग्रमहिषियों कोशाम्बी के अपने समान नाम वाले गाथापति दम्पतियों की पुत्रियां थीं। दूसरे वर्ग से दशम वर्ग तक में वणित ये सभी २०१ देवियाँ अपने अपने पूर्वभव में जीवन भर अविवाहित रहीं, जराजीर्ण वृद्धावस्था में इन सभी वृद्धकुमारियों ने भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेशों से विरक्त हो श्रमणीधर्म स्वीकार किया । ग्यारह अंगों की ज्ञाता होकर इन सबने अनेक प्रकार की तपस्याएं की, पर कालान्तर में ये सबकी सब शरीरबाकुशिका हो साध्विसंघ से पृथक हो स्वतन्त्रविहारिणियां एवं शिथिलाचारिणियां बन गई और अन्त में अपने अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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