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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[लोक का स्वरूप]
दुस्सह्य दारुण दुःख भोगता चला पा रहा हूं। मेरे घर के बाह्य एवं प्राभ्यन्तर माग में इन कर्म-चोरों ने पूर्ण अधिकार जमा रखा है । मुझे मन-वचन-कायविशुद्धिपूर्वक तपश्चरण, पांच समितियों और तीन गुप्तियों की समीचीनतया प्राराधना कर इन कर्मशत्रुओं की निर्जरा करनी है, इन कर्मचोरों को नष्ट करना है। कर्मों की पूर्णरूपेण जब तक निर्जरा नहीं करूंगा, जब तक कर्मों का समूल नाश नहीं करूंगा तब तक इन अनन्त दुःखों से मेरा छुटकारा होना असम्भव है । दुःखों से सदा सर्वदा के लिये विमुक्त होने हेतु मैं. भावशुद्धि एवं तपश्चरणादि द्वारा कर्मों की निर्जरा करने का पूरा प्रयास करूगा । इस प्रकार को भावना भाने का नाम है नवीं भावना "निर्जरा भावना।"
१०. लोक-स्वरूप भावना-अनन्त अलोकाकाश के मध्यभाग में अवस्थित यह लोक सभी ओर से क्रमशः घनोदधि, घनवात और तनवात नामक तीन प्रकार की वायु के वलयों से वेष्टित एवं इन्हीं तीन प्रकार की वायु के आधार पर अवस्थित है।
लोक का स्वरूप सम्पूर्ण लोक की ऊंचाई चौदह राज प्रमाण है । लाक का आकार दोनों पैरों को फैला कर कमर पर हाथ रख कर खड़े पुरुष के प्राकार के समान है । सम्पूर्ण लोक मुख्यतः अधोलोक, मध्यलोक (तिर्थालोक) और ऊर्वलोक इन तीन विभागों में विभक्त किया जाता है । म क के सबसे निचले भाग की चौड़ाई (विस्तार) देशोन सात राज परि, रण का है। इससे ऊपर इसका विस्तार अनुक्रमशः घटते-घटते कमर के भाग अर्थात् मध्य भाग में एक राजू रह गया है । मध्य भाग से ऊपर इसका विस्तार क्रमश: बढ़ते-बढ़ते दोनों हाथों की कुहनियों के स्थान पर पांच राजु परिमारण का है । दोनों कुहनियों के ऊपर पुनः अनुक्रमशः घटते-घटते मस्तक के स्थान अर्थात् लोक के अग्र भाग पर इसका विस्तार एक राजू परिमारण रह गया है ।
प्रधोलोक
अधोलोक की ऊंचाई सात राजू से कुछ अधिक है । अधोलोक का प्राकार पयंक अथवा वेत्रासन के समान है। इस वेत्रासनाकार अधोलोक में मध्यलोक के नीचे क्रमशः रत्नप्रभा प्रादि गोत्र वाली धम्मा, वंशा, शिला, अंजना, अरिष्टा, मघा और माधवई-ये ७ पवियां हैं। इन सातों पस्वियों में पहली पृथ्वी घम्मा (रत्नप्रभा गोत्र) की मोटाई १ लाख ८० हजार योजन, दूसरी शर्करा प्रभा की १ लाख ३२ हजार योजन, तीसरी बालुकांप्रभा की एक लाख २८ हजार योजन, चौथी पंकप्रभा पृथ्वी की मोटाई १ लाख २४ हजार योजन, पांचवीं घूम्रप्रभा पृथ्वी की मोटाई १ लाख २० हजार योजन, छठी तमः प्रमा
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