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________________ का पूर्वभव भ० श्री सुमतिनाथ १५१ ___४. अन्यत्व भावना-इस संसार में मैं किसी का नहीं और न कोई मेरा ही है। माता, पिता, भाई, स्वजन, परिजन, मित्र, स्नेही आदि सुझे अपना कहते हैं और मैं भी इन्हें अपना ही समझता आया हूं। पर वस्तुतः ये मेरे नहीं, मुझ से अन्य हैं । मैं भी इनका नहीं। क्योंकि ये अन्य हैं और मैं भी अन्य हं। ये मुझ से भिन्न हैं और मैं इनसे भिन्न हूं । अन्यत्व में अपनत्व की, ममत्व की बुद्धि वस्तुतः असत्य है, भ्रान्ति और व्यामोह मात्र है। यह है चौथी अन्यत्व भावना। ५. अशुचि भावना-मैं कितना मूढ़ हूं कि अपनी इस अपवित्र-अशुचिभण्डार देह पर गर्व करता है, फूला नहीं समाता । अस्थि-चर्म-रुधिर-मांस-मज्जा का ढांचा यह मेरा शरीर मल-मूत्र, लार-कफ, पित्त आदि अशुचियों से भरा पड़ा है। इसमें पवित्रता एवं रमणीयता कहां? इस प्रकार की भावना अशुचि भावना नामक पांचवीं भावना है। ६. असार भावना-यह संसार नितान्त निस्सार-सर्वथा प्रसार है । कहीं किसी भी सांसारिक कार्यकलाप में कोई किंचिन्मात्र भी तो सार नहीं, सब कुछ तृणवत् त्याज्य, प्रसार है । यह है 'असार भावना' नामक छठी भावना। ७. पाश्रव भावना-हाय ! मैं अनन्त संसार में अनन्तानन्त काल तक भटकने की ओर-छोर विहीन अपार सामग्री एकत्रित कर रहा हूं। सब भोर से खुले मेरे व्रत-नियम विहीन अथाह आत्मनद में महानदियों के प्रत्युग्र-प्रति विशाल जल प्रवाह से भी अति भयंकर अतिविशाल प्रवाह एवं अति तीव्र वेग वाले कर्माश्रव (कर्मों की महा नदियों के असंख्य समूह) गिर रहे हैं। यदि मैंने व्रत नियमादि के द्वारा आत्मनद में अहर्निश प्रतिपल-प्रतिक्षरण गिरते हुए कर्मप्रवाह के इन आश्रव द्वारों को नहीं रोका तो मैं अनन्तानन्त काल तक इस भयावहा भवाटवी में भटकता रहूंगा, अनन्त अपार, अथाह भवसागर में डूबा रहूंगा । यह है सातवीं "पाश्रव भावना।" । ८. संवर भावना--प्रात्मनद में अहर्निश, प्रतिक्षण महानदियों के पूर की तरह गिरते हुए कर्माश्रवों का निरोध संवर द्वारा ही किया जा सकता है। अतः मुझे नियमित रूप से व्रत, नियम, प्रत्याख्यान महाव्रतादि ग्रहण तथा कषायों के अधिकाधिक निग्रह द्वारा द्रव्य संवर और भाव संवर, दोनों ही प्रकार के संवर से इन पाश्रवों को रोकना चाहिये । नियमित रूप से व्रत, नियम, महाव्रत आदि ग्रहण कर के ही मैं इन पाश्रवों से अपनी प्रात्मा का संवरण तथा संरक्षण कर सकता हूं । अन्तर्मन से इस प्रकार की भावना भाने का नाम पाठवीं "संवर भावना" है । ६. निर्जरा भावना-मैं अनादि काल से कर्मशत्रुमों द्वारा जकड़ा हुमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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