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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् सुमतिनाथ चौथे प्रकार का धर्म है-भावनाधर्म । भावनाएँ बारह प्रकार की हैं; अतः भावना-धर्म बारह प्रकार का है । यथा :
१. अनित्य भावना-यौवन, धन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य, ऐहिक सुखोपभोग, पुत्र-पौत्र-कलत्र आदि परिजन, यह शरीर और जीवन आदि आदि-ये संसार के समग्र कार्यकलाप अनित्य हैं--क्षणविध्वंसी हैं, मृगमरीचिका तुल्य, इन्द्रजालवत्, स्वप्न-दर्शन समान नितान्त असत्य, मायास्वरूप, भ्रान्ति अथवा व्यामोहपूर्ण हैं । संसार में एक भी वस्तु ऐसी नहीं, जो चिरस्थायिनी हो । ये सब मुझ से भिन्न हैं, मैं इन सबसे भिन्न सच्चिदानन्द स्वरूप विशुद्ध चैतन्य हूं। इन अनित्य जड़ तत्वों के संग से, अज्ञानवश इन्हें अपना समझ कर मैं ध्रौव्यधर्मा शाश्वत होते हुए भी इन अनित्य जड़ तत्वों की भांति उत्पाद-व्ययधर्मा बन कर जन्म-जरा-मृत्यु की विकराल चक्की में अनादि काल से पिसता चला आ रहा हूं । इन क्षरणविध्वंसी अनित्य एवं जड़ पदार्थों के साथ मुझ अविनाशी ध्रौव्यवर्मा, नित्य शाश्वत, विशुद्ध चैतन्य का संग वस्तुत: मेरा व्यामोह मात्र है। अब इन उत्पत्ति-विनाशधर्मा जड़ पदार्थों के साथ, इस अनित्य जगत् के साथ मैं कभी किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं रखूगा । यह अनित्य भावना नाम की पहली भावना है।
२. अशरण भावना-मैं सच्चिदानन्द ज्ञानघन स्वरूप चैतन्य होते हुए भी मदारी के मर्कट की भांति कर्मरज्जु से आबद्ध हो अशरण बना हुआ असहाय, अनाथ की भांति अनादि काल से अनन्तानन्त दुस्सह दारुण दुःख भोगता हुआ भवाटवी में भटकता आ रहा हूं। तात, मात, भाई, बन्धु, स्त्री, पुत्र, स्वजन, स्नेही आदि में से कोई भी मुझे शरण देने वाला नहीं है, कोई मेरा दुखों से त्राण करने वाला नहीं है। केवल वीतराग जिनेन्द्र प्रभु ही मुझे शरण देने वाले हैं। अत: मैं इसी क्षण से जिनेन्द्र देव की-जिनेन्द्र प्ररूपित धर्म की, प्राणिमात्र के हितैषी, पंच महाव्रतधारी गरुदेव की-जिनशासन की सर्वात्मना सर्वभावेन अविचल
आस्था और दृढ़ विश्वास के साथ शरण ग्रहण करता हूं । अहर्निश प्रतिपल, प्रतिक्षण इस प्रकार की भावना अन्तर्मन से भाना अशरण भावना नाम की दूसरी भावना है।
३. एकत्व भावना--मैं एकाकी हूं। मेरा कोई संगी साथी नहीं । मेरे द्वारा उपार्जित कर्मों का फल केवल एकाकी मुझे ही भोगना पड़ेगा। कोई भी स्वजन अथवा परिजन उसमें भागीदार बनने वाला नहीं है । क्योंकि मेरे सिवा और कोई मेरा है ही नहीं । मैं तो अनादि से एकाकी ही हूं और एकाकी ही रहंगा । प्रतिपल अन्तर्मन से इस प्रकार की भावना भाना एकत्व भावना नामक तीसरी भावना है।
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