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[अधोलोक] भ० श्री सुमतिनाथ
१८३ पृथ्वी की मोटाई १ लाख १६ हजार योजन और सातवीं महातमः प्रभा पृथ्वी की मोटाई १ लाख ८ हजार योजन है । ये सातों पृथ्वियां अपने से पहली पृथ्वी से अनुक्रमशः असंख्यात हजार योजन नीचे हैं।
रत्नप्रभा पृथ्वी.की १ लाख ८० हजार योजन की कुल मोटाई में से १ हजार योजन ऊपर और एक हजार योजन नीचे की मोटाई को छोड़ शेष ? लाख ७८ हजार योजन के बीच के क्षेत्र के ऊपरी भाग में व्यन्तर एवं भवनपति देवों के निवास हैं और नीचे के भाग में नारकों के नरकावास हैं।
इन सातों पृथ्वियों में अनुक्रमशः १३, ११, ६, ७, ५, ३, १-यों कुल मिला कर ४६ पाथड़े हैं। इस प्रकार ४६ पाथड़ों में विभक्त उपरिलिखित ७ पवियों में अनुक्रमशः ३० लाख, २५ लाख, १५ लाख, १० लाख, ३ लाख, ६६६६५ और ५--यों कुल मिला कर ८४ लाख नरकावास हैं, जहां अनेक प्रकार के घोर पाप करने वाले महादम्भी जीव नारकीय के रूप में उत्पन्न होते हैं। उन नरकावासों में सदा-सर्वकाल असंख्यात नारकीय जीव क्षेत्रजन्य, परस्परजन्य असंख्यात प्रकार के परम दुस्सह अति दारुण दु:ख असंख्यात काल तक भोगते हैं। उन नारकीय जीवों को अपने असंख्यात काल के लम्बे जीवन में केवल घोर दुःख ही दुःख हैं। कभी पलक झपकने जितने समय के लिये भी उन्हें चैन नहीं मिलता । नारक भूमियों के कण-कण में नारकीय जीवों के अंग-प्रत्यंग और रोम-रोम में इतनी भयंकर दुस्सह दुर्गन्ध भरी हुई है कि उसकी उपमा देने के लिये तिर्छालोक में कोई वस्तु नहीं । वहां की वायु मध्यलोक की भीषण से भीषण भट्टी को आग की अपेक्षा असंख्यात गुना अधिक तापकारिणी है। नरक की वैतरणी का जल यहां के तेज से तेज तेजाब की अपेक्षा अत्यधिक दाहक होता है, जिससे नारकीयों के शरीर फट जाते हैं। वहां के असिपत्र वृक्षों के पत्तों से नारक जीवों के शरीर, अंग-प्रत्यंग कट जाते हैं। क्रूरकर्मा नारक जीव एक दूसरे को तलवारों से काटते, करवत से चीरते, कुल्हाड़े से छिन्न-भिन्न करते, बसोले से छीलते, भालों से बींधते, सूली पर लटकाते, भाड़ में भूनते और खोलते हुए तैल से भरी कड़ाही में तलते हैं । वे नारक जीव सिंह, व्याघ्र गीध आदि का रूप बना परस्पर लड़ते, कराल दंष्ट्रालों से चीर-फाड़ करते, वज्रमयी चोंचों से एक दूसरे की अांखें, प्रांत निकाल-निकाल कर एक-दूसरे को घोर यातनाएं पहँचाते हैं। छेदन-भेदन से उन्हें दुस्सह पीड़ा होती है पर पारद के बिखरे करणों के समान उनके कटे हुए अंग-प्रत्यंग पुनः जुड़ जाते हैं । इन पीड़ाओं से वे मरते नहीं, आयु पूर्ण होने पर ही मरते हैं। तीसरी नरक तक परमाधामी असुर वहां के नारकियों को परस्पर उकसाते, लड़ाते और दारुग्ण दुःख देते हैं । इन सात नारक भूमियों में असंख्यात काल
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