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जन धर्म का मौलिक इतिहास [ रा० द्वारा ने० को भोगमार्ग.
हो, नीरस हो अथवा पौरुष-विहीन हो ? याद रखो कुमार ! बिना स्त्री के तुम्हारा जीवन निर्जन वन में खिले सुन्दर-मनोहर सुरभिसंयुक्त पुष्प के समान निरर्थक ही रहेगा ।"
"जिस प्रकार प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने पहले विवाह किया, फिर धर्म - तीर्थ की स्थापना की, उसी प्रकार प्राप भी पहले गृहस्थोचित सब कार्य सम्पन्न कर फिर समय पर यथारुचि ब्रह्मव्रत को साधना कर लेना । गृहस्थजीवन में ब्रह्मचर्यं प्रशुचि स्थान में मन्त्रोचारण के समान है।" फिर आप ही के वंश में मुनिसुव्रत तीर्थंकर हुए । उन्होंने भी पहले विवाहित होकर फिर मुनिव्रत ग्रहण किया था । श्रापके पीछे होने वाले तीर्थंकर भी ऐसा ही करेंगे । फिर आप ही क्या ऐसे नये मुमुक्षु हैं जो पूर्व-पुरुषों के पथ को छोड़कर जन्म से ही स्त्री, भोग एवं विषयादि से पराङ्मुख हो रहे हैं ?"
सत्यभामा ने तमक कर कहा - "ये मिठास से रास्ते आने वाले नहीं हैं । माता-पिता भाई सब समझाते -समझाते हार गये, अब कड़ाई से काम लेना होगा । हम सबको मिल कर अब इन्हें पास के एक स्थान में बन्द कर देना चाहिए और जब तक ये हमारी बात मान नहीं लें तब तक छोड़ना ही नहीं चाहिए ।"
रुक्मिणी ने कहा - "बहिन ! हमें अपने प्रिय सुकुमार देवर के साथ ऐसा कठोर व्यवहार नहीं करना चाहिए, हमें बड़े मीठे वचनों से नम्रतापूर्वक इन्हें विवाह के लिए राजी करना चाहिए ।"
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रुक्मिणी यह कह कर श्री नेमिकुमार के चरणों में झुक गई । श्रीकृष्ण की शेष सब रानियों ने भी नेमि के चरणों में अपने सिर झुका दिये और विवाह की स्वीकृति हेतु अनुनय-विनय करने लगीं ।
यह देख कर कृष्ण प्रा गये और नेमिनाथ से बड़े ही मीठे वचनों से कहने लगे - " भाई ! अब तुम विवाह कर लो ।”
इतने में अन्य यादवगरण भी वहाँ श्रा पहुँचे और नेमिनाथ से कहने लगे“कुमार ! अपने बड़े भाई का कहना मान लो और माता-पिता एवं अपने स्वजन - परिजन को प्रमुदित करो। "
इन सब के हठाग्रह को देख, नेमिकुमार ने मन ही मन विचार किया"प्रोह ! इन लोगों का कैसा मोह है कि ये लोग केवल स्वयं ही संसार-सागर में १ समये प्रतिपद्येथा, ब्रह्मापि हि यथा रुचि ।
गार्हस्थ्ये नोचितं ब्रह्म, मंत्रोद्गार इवाशुचौ ।। १०५
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[त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्रं, पर्व ८, सर्ग ६ ]
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