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ओर मोड़ने का यत्न ]
• भगवान् श्री श्ररिष्टनेमि
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नहीं डूब रहे हैं अपितु दूसरों को भी स्नेह - शिला से बाँध कर भवार्णव में डाल रहे हैं । इनके आग्रह को देखते हुए यही उपयुक्त है कि इस समय मुझे केवल वचन मात्र से इनका कहना मान लेना चाहिए और समय आने पर अपना कार्य कर लेना चाहिए । ऐसा करने से गृह, कुटुम्ब आदि का परित्याग करने का कारण भी मेरे सम्मुख उपस्थित होगा ।" यह सोच कर नेमि ने कहा - "हाँ ठीक है, ऐसा ही करेंगे ।" "
मकुमार की बात सुन कर कृष्ण और सभी यादव बड़े प्रसन्न हुए । श्रीकृष्ण सपरिवार द्वारिका में आकर नेमिनाथ के योग्य कन्या ढूंढने का प्रयत्न करने लगे । सत्यभामा ने कृष्ण से कहा- “मेरी अनुपम रूप-गुण-सम्पन्ना छोटी बहिन राजीमती पूर्णरूपेण नेमिकुमार के अनुरूप एवं योग्य है ।"
यह सुन कर कृष्ण प्रति प्रसन्न हुए और उन्होंने तत्काल महाराज उग्रसेन के पास पहुँच कर अपने भाई नेमिकुमार के लिए उनकी पुत्री राजीमती की उनसे याचना की । उग्रसेन ने अपना अहोभाग्य समझते हुए प्रमुदित हो कृष्ण के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया । नेमिनाथ यहाँ आवें तो मैं अपनी पुत्री देने को तैयार हूँ ।
उग्रसेन द्वारा स्वीकृति मिलते ही कृष्ण महाराज समुद्रविजय के पास ये और उनकी सेवा में नेमिनाथ के लिए राजीमती की याचना और उग्रसेन द्वारा सहर्ष स्वीकृति आदि के सम्बन्ध में निवेदन किया ।
समुद्रविजय ने हर्ष - गद्गद् स्वर में कहा - "कृष्ण ! तुम्हारी पितृ-भक्ति एवं भ्रातृ-प्रेम बहुत ही उच्चकोटि के हैं । इतने दिनों से जो हमारी मनोभिलाषा केवल मन में ही मरी पड़ी थी, उसे तुमने नेमिकुमार को विवाह करने हेतु राजी कर सजीव कर दिया है। पुत्र ! बड़ी कठिनाई से नेमिकुमार ने विवाह करने की स्वीकृति दी है, अतः कालक्षेप उचित नहीं है ।"
समुद्रविजय आदि ने नैमित्तिक को बुलाया और श्रावण शुक्ला ६ को विवाह का मुहूर्त निश्चित कर लिया । २ श्रीकृष्ण ने भी द्वारिका नगरी के प्रत्येक पथ, वीथि, उपवीथि, अट्टालियों, गोपुर और घर-घर को रत्नमंचों, तोरणों १ एवं चैव कीरतं मज्भं पि परिच्चायकारणं भविस्सइ । त्ति कलिकरण परिहास पयारणापुष्वयं पि भरिणऊण पडिवणं एवं चेव कीर । [चउवन्न महापुरिसचरियं, पृष्ठ १६२ ] २ चउत्रन महापुरिस चरियं में उसी समय भगवान् श्ररिष्टनेमि द्वारा वार्षिक दान देना प्रारम्भ कर देने का उल्लेख है । यथा - "भयवं पुरण तेरणेव वव एसेरण संच्छरियं महादाणं दाउमाढत्तो..... [चउवन महापुरिस, चरियं पृष्ठ १६२ ]
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