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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [रा. द्वारा ने को भोगमा मादि से खूब सजाया। बड़ी धूमधाम के साथ नेमिकुमार के विवाह की तैयारियां की गई।
विवाह से एक दिन पहले दशों दशाहो, बलभद्र, कृष्ण आदि ने अन्तःपूर को समस्त सुहागिनियों द्वारा गाये जा रहे मंगल-गीतों की मधुर ध्वनि के बीच नेमिनाथ को एक ऊँचे सिंहासन पर पूर्वाभिमुख बैठाया । अनेक सुगन्धित महाऱ्या, विलेपनादि के पश्चात् स्वयं बलराम और कृष्ण ने उन्हें सब प्रकार की प्रौषधियों से स्नान कराया' और उनके हाथ पर कर-सूत्र (कंकण-डोरा) बांधा।
तदनन्तर श्रीकृष्ण उग्रसेन के राजप्रासाद में गये । वहाँ पर भी उन्होंने दुलहिन राजीमती के कर में उसी प्रकार मंगल-मृदु गीतों की स्वर-लहरियों के बीच उबटन-विलेपन-स्नानादि के पश्चात् कर-सत्र बँधवाया और अपने भवन को लौटे।
दूसरे दिन भगवान् नेमिनाथ की बगत सजायी गई। महाय, सुन्दर श्वेत वस्त्र एवं बहुमूल्य मोतियों के प्राभूषण पहने, श्वेत छत्र तथा श्वेत चामरों से सुशोभित, कस्तूरी और गौशीर्ष चन्दन का विलेपन किये दूल्हा अरिष्टनेमि श्रीकृष्ण के सर्वश्रेष्ठ मस्त गन्धहस्ती पर प्रारूढ़ हुमा ।
नेमिकुमार के हाथी के आगे अनेक देवोपम यादव कुमार घोड़ों पर सवार हो चल रहे थे। घोड़ों की हिनहिनाहट से सारा वायुमण्डल गूज रहा था । नेमिकुमार के दोनों पावों में मदोन्मत्त हाथियों पर बैठे हजारों राजा चल रहे थे और नेमिकुमार के हाथी के पीछे-पीछे दशों भाई दशाह, बलराम और कृष्ण हाथियों पर प्रारूढ़ थे तथा उनके पीछे बहुमूल्य सुन्दर पालकियों में बैठी हुई राजरानियां, मन्तःपुर की व अन्य सुन्दर रमणियां मंगल-गीतों से वायुमण्डल में स्वरलहरियां पैदा करती हुई चल रही थीं। उच्च स्वर से किये जाने वाले मंगल पाठ से और विविध वाद्यों की कर्णप्रिय ध्वनि से सारा वातावरण बड़ा मृदु, मनोरम एवं मादक बन गया । इस तरह बड़े ठाठ-बाट के साथ नेमिकुमार की बरात महाराज उग्रसेन के प्रासाद की ओर बढ़ी । वर-यात्रा का दृश्य बड़ा ही सम्मोहक, मनोहारी और दर्शनीय था। सुन्दर, समृद्ध एवं सुसज्जित बरातियों के बीच दूल्हा नेमिकुमार संसार के सिरमौर, त्रैलोक्य ग़ामरिण की तरह सुशोभित हो रहे थे।
योसहीहि म्हवियो कयकोउय मंगलो। [उत्तराध्ययन, म २२, गा..] २ (क) मतप गन्ध हत्यि वासुदेवस्स जेट्टगं प्रारूढ़ो सोहए पहियं, सिरे चूगमणि जहा।
[उत्तराध्ययन, अ० २२ गा०१०] (ब) त्रिषष्टि शलाका पु० चरित्र में श्वेत घोड़ों के रथ पर भारूढ़ होने का उल्लेख है।
यथाः-प्रारुरोहारिष्टनेमिः स्यन्दनं श्वेतवाजिनम् ।। [पर्व८, स०६, श्लो०१४६]
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